ये शास्ट्रोनमेवलिख हैइसमें वेद-उपनिषद, गीता और स्मृति-ग्रंथों में बताए गए देवयान और पितृयान मार्गों का अच्छा सार है, और साथ ही आपने अपनी व्यक्तिगत सोच भी उसमें जोड़ी है।कुछ बिंदु स्पष्ट रूप से अलग किए जा सकते हैं:१. गति के प्रकारदेवयान गति (शुक्ल मार्ग / उत्तरायण मार्ग)ज्ञान प्रधान, कर्म के साथ संतुलित या कर्म से ऊपर।सहस्रार (ब्रह्मरंध्र) से प्राण का प्रस्थान।सूर्यमार्ग से ब्रह्मलोक की ओर गमन।यहाँ से पुनर्जन्म नहीं, बल्कि प्रलय तक निवास या पूर्ण ज्ञान होने पर परमगति।पितृयान गति (धूम मार्ग / दक्षिणायन मार्ग)ज्ञान और कर्म में अपूर्णता।चंद्रलोक की ओर गमन।स्वर्ग-नरक भोग के बाद पुनर्जन्म।इसे “वक्रगति” भी कहा गया है।अन्य बहिर्गतिनौ द्वारों से प्राण का निकलना — यह लौकिक गति है, उच्च गति नहीं।सहस्रार द्वार को छोड़कर अन्य मार्गों से निकली आत्मा पुनर्जन्म चक्र में रहती है।२. आपके विचार – पूर्णिमा और श्राद्धआपने यह सोचा कि पूर्णिमा का चंद्रमा पूर्णता का प्रतीक है, इसलिए मुक्त आत्माओं (जो सहस्रार से निकली हों और देवयान पथ पर चली हों) को पूर्णिमा के दिन स्मरण करना चाहिए।गुरु पूर्णिमा इसी कारण विशेष मानी जाती है – गुरु, संत और महापुरुष पूर्णता के प्रतीक हैं।अमावस्या पर श्राद्ध इसलिए कि वह पितृयान गति वालों के लिए है – अधूरी, पुनर्जन्म की ओर जाने वाली आत्माओं के लिए।इस प्रकार आपने मुक्त आत्माओं और पितृगति आत्माओं के बीच अंतर करके, उनके लिए स्मरण की अलग-अलग तिथियाँ प्रस्तावित कीं।३. शास्त्र और आपकी सोचशास्त्रों में देवयान-पितृयान का वर्णन अवश्य है (गीता अध्याय ८, छांदोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद आदि)।श्राद्ध परंपरा अधिकतर पितृगति आत्माओं के लिए है, इसलिए अमावस्या पर बल दिया गया है।लेकिन संत और मुक्त आत्माओं के लिए स्मरण और आराधना की परंपरा वास्तव में पूर्णिमा और गुरु पूर्णिमा जैसे पर्वों में ही दिखाई देती है।इस तरह आपकी सोच शास्त्र-विरोधी नहीं है, बल्कि परंपरा को एक नए कोण से देखने की कोशिश है।निष्कर्षआपका विचार संतों और महापुरुषों के लिए पूर्णिमा को स्मरण करना बिल्कुल उचित और सार्थक है।पितरों के लिए अमावस्या और मुक्त आत्माओं के लिए पूर्णिमा — यह विभाजन आपकी अंतर्दृष्टि है, और यह आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत सुंदर भी है।भगवद्गीता – अध्याय ८ (अक्षरब्रह्म योग)
श्रीकृष्ण अर्जुन को दो गतियों का वर्णन करते हैं:
श्लोक ८.२३ – ८.२६
यत्र कालोऽनवृत्तिं च, एवृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं, वक्ष्यामि भरतर्षभ।।
शुक्ल मार्ग (देवयान) – जहाँ से गए तो पुनर्जन्म नहीं।
कृष्ण मार्ग (पितृयान) – जहाँ से गए तो पुनर्जन्म होता है।
श्लोक ८.२४
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।
यह देवयान गति है – अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण से ब्रह्मलोक गमन।
श्लोक ८.२५
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।
यह पितृयान गति है – धूम, रात्रि, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन से चंद्रलोक गमन और फिर पुनर्जन्म।
छांदोग्य उपनिषद (५.१०.३ – ५.१०.८)
यहाँ भी दो मार्गों का वर्णन है:
देवयान (शुक्ल मार्ग)
देवताओं का मार्ग।
ब्रह्मलोक और अंततः मुक्ति।
पितृयान (धूम मार्ग)
पितरों का मार्ग।
चंद्रलोक जाकर पुनर्जन्म।
मूल वचन:
अथ य एते अर्चिषमभिसम्बवन्ति … तेऽर्चिषमभिसम्बवन्ति।
अर्चिषोऽहः, अह्नः शुक्लः, शुक्लात् उत्तरायणम् … एष देवयानः।
धूममभिसम्बवन्ति … धूमात् रात्रिः, रात्रेः कृष्णः, कृष्णात् दक्षिणायनम् … एष पितृयानः।
बृहदारण्यक उपनिषद (६.२.१५-१६)
यहाँ भी यही दो गति विस्तार से वर्णित हैं।
शुक्ल मार्ग – देवयान → ब्रह्मलोक।
धूम मार्ग – पितृयान → चंद्रलोक → पुनर्जन्म।
आपकी सोच का मिलान
आपने कहा: देवयान गति सरल है, पुनरावृत्ति नहीं। गीता और उपनिषद भी यही कहते हैं।
पितृयान गति वक्रगति है, पुनर्जन्म होता है। ✅ यह भी शास्त्रीय है।
पूर्णिमा का महत्व मुक्त आत्माओं के लिए है, अमावस्या पितृगति के लिए।
शास्त्र सीधे यह नहीं कहते, लेकिन आपकी अंतर्दृष्टि परंपरा से मेल खाती है:
अमावस्या → पितृश्राद्ध (क्योंकि पितृयान चंद्रलोक तक जाता है)
पूर्णिमा → गुरु/संत स्मरण (क्योंकि पूर्णता और प्रकाश का प्रतीक है, देवयान मार्ग से मेल खाता है)।