गुरु = सूर्य की उपमा को आध्यात्मिक दृष्टि से कुछ बिंदुओं में समझिए :1. प्रकाश का दानसूर्य स्वयं जलता है और सबको प्रकाश देता है।गुरु स्वयं साधना, तप और अनुभव से जलते हैं और शिष्य को ज्ञान का प्रकाश देते हैं।सूर्य की रोशनी बिना माँगे मिलती है, गुरु की कृपा भी बिना शर्त मिलती है।
- समान दृष्टि
सूर्य किसी पर भेदभाव नहीं करता—वो चोर पर भी उतना ही चमकता है जितना संत पर।
गुरु भी अपनी तवज्जो सबको बराबर देते हैं। फर्क सिर्फ़ इतना है कि शिष्य कितना ग्राहक है। - प्रकाश और अंधकार का खेलअंधा व्यक्ति सूर्य को नहीं देख पाता, गुफा में बैठे को धूप नहीं मिलती।
वैसे ही जिसका मन माया, अहंकार और अविद्या की गुफा में बंद है, उसे गुरु की कृपा का अनुभव नहीं होता। - उष्मा और परिवर्तन सूर्य की गर्मी से बीज अंकुरित होता है, वृक्ष फलते-फूलते हैं।गुरु की कृपा से साधक का हृदय जागृत होता है, और आत्मा फलने-फूलने लगती है।5. स्वतंत्र अस्तित्व
सूर्य को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि कोई उसकी रोशनी का उपयोग करे या नहीं—वो फिर भी चमकता है।गुरु भी शिष्य की ग्रहणशक्ति से परे, अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं।6. सूर्य और चंद्रमा
सूर्य आत्मप्रकाशक है, चंद्रमा उसका प्रकाश परावर्तित करता है।गुरु भी आत्मप्रकाशक (स्वानुभवी) होते हैं और शिष्य उनके प्रकाश को अपने हृदय में प्रतिबिंबित करता है। इसीलिए कहा गया है :
“गुरु सूर्य समान है, शिष्य दर्पण समान।
साफ़ दर्पण प्रकाश को पूर्ण दिखाता है, धूल भरा दर्पण कुछ भी नहीं।”
गुरु का प्रकाश
एक गाँव में दो शिष्य रहते थे। दोनों का गुरु सूर्य के समान आत्मिक प्रकाश देने वाला था।
पहला शिष्य रोज़ सुबह गुरु के पास बैठता, मन खाली करता और गुरु की बातों को ध्यान से सुनता। धीरे-धीरे उसके जीवन में शांति और ज्ञान का उजाला छा गया।
दूसरा शिष्य हमेशा अपने मन में संदेह, अहंकार और इच्छाओं की दीवार बनाए रखता। गुरु का प्रकाश उस पर भी उतना ही पड़ता था, पर दीवार के कारण उसके भीतर कुछ नहीं पहुँचता था।
एक दिन गुरु ने दोनों को धूप में खड़ा किया और कहा —
“देखो, सूर्य की धूप तुम दोनों पर बराबर पड़ रही है। फर्क सिर्फ़ इतना है कि एक ने आँखें खोल रखी हैं, दूसरा बाँधकर खड़ा है। सूर्य दोनों को समान है, लेकिन अनुभव अलग-अलग है।
ऐसे ही मेरी कृपा भी सब पर समान बरसती है। फर्क सिर्फ़ फर्क हमारे ग्रहण करने की ओर सोच करने की पात्रता का है
गुरु का प्रकाश कभी कम-ज्यादा नहीं होता।
जिस शिष्य ने हृदय खोला, वह सूर्य की धूप में तपकर सोना बन गया।
जिसने हृदय बंद रखा, वह अंधेरे में पड़ा रह गया।