सुषुम्ना : आत्मा की मुक्ति का स्वर्ण द्वार

मेरे पिताजी का कहना था जो व्यक्ति इस संसार से विरक्त हो वीतरागी या केवल्य स्तिथि अपने गुरु की मेहेर से पा लेता है उसके शरीर के रोम रोम में शक्तिपात हो ओम का बनाद बजना शुरू हो जाता है मोह माया से विरक्त हो उसमे सम स्तिथि आ जाती है और सिर्फ आध्यात्मिकता में वह स्थिर हो जाता है जब ये ही व्यक्ति किसी को अपना शिष्य बनाता है तो उसे दीक्षा स्पर्श आंखों से ओर अपनी ऊर्जा दिल पर केंद्रित कर उसकी सुषम्ना नाड़ी को जाग्रत कर उसकी ऊर्जा अंघुथे से लेकर सर के अंतिम चक्र तक पहुचा कर एक ऊर्जा का संचालन कर उसका मन स्थिर कर देता है इस अवस्था मे उसका स्वास लेना लगभग कम हो जाता है और स्वास क्रिया अब इडा पिंगला जो पूर्ण तय सक्रिय होती है वह कम हो उसका स्वास लेना सुषम्ना से शरू हो स्वास की गति अति धीमी हो जाती है जब सुष्मना कार्यरत हो जाती है तो स्वास की गति धीमी हो जाती है जिससे योगियों की उम्र बढ़ जाती है धीरे धीते मन विरक्त हो एकाग्र हो जाता है और इंसान सब मोह माया से दूर हो अपनी साधना यानी ईश्वर में लय हो जाता है जब मोह माया मिट जाती है तब आध्यात्मिक सफर जिसे वीतरागी या केवल्य कहा गया है शुरू होता है सब विकार मिट के इंसान में बन मानवता में जीत है जहां उसे सिर्फ ईश्वर अपने मे नजर आता हैकर्म सुषुम्ना का महत्व अध्यात्म में१. आध्यात्मिक मार्ग का द्वारशरीर में ७२,००० नाड़ियाँ कही जाती हैं, परन्तु सुषुम्ना ही ब्रह्ममार्ग है।इड़ा और पिंगला केवल मन और शरीर (भोग, कर्म, प्रकृति) में उलझाए रखते हैं।जब प्राण सुषुम्ना में प्रवाहित होता है तभी साधक बाहरी जगत से हटकर भीतर की यात्रा करता है।२. वीतरागता का उदयइड़ा-पिंगला का प्रवाह मन में राग-द्वेष और द्वैत को बनाए रखता है।सुषुम्ना में प्रवेश करते ही श्वास बहुत सूक्ष्म हो जाती है,और साधक का मन द्वैत से हटकर समत्व और शांति में टिकता है।यही अवस्था वीतराग (राग-द्वेष से परे) बनाती है।३. शरीर पर नियंत्रणजब प्राणसंचार सुषुम्ना में होता है तो निचले चक्रों की इच्छाएँ शांत हो जाती हैं।शरीर पर ताप, भूख-प्यास, नींद और कामना का नियंत्रण आता है।यही कारण है कि महान संत अल्प आहार, अल्प निद्रा में भी स्वस्थ और आनंदित रहते हैं।४. कुण्डलिनी जागरण और चैतन्य का प्रस्फुटनसुषुम्ना ही वह मार्ग है जहाँ से कुण्डलिनी ऊर्जा ऊपर उठती है।मूलाधार से सहस्रार तक चढ़ते हुए चक्रों को जागृत करती है।इससे साधक के भीतर अद्भुत शक्ति, ज्ञान और करुणा प्रकट होती है।५. समाधि और मोक्ष का मार्गजब श्वास स्थिर होकर सुषुम्ना में टिकती है, तो साधक का मन धीरे-धीरे लय हो जाता है।यह लय ही ध्यान की पराकाष्ठा – समाधि है।सुषुम्ना मार्ग से सहस्रार में प्रवेश होने पर जीव देह-बन्धन से मुक्त होकर परमात्मा से एक हो जाता है।इड़ा-पिंगला = संसार, राग-द्वेष, कर्म।सुषुम्ना = अध्यात्म, वीतरागता, मोक्ष।जो साधक श्वास और मन को सुषुम्ना में स्थिर कर लेता है, वह न केवल अपने शरीर और मन पर नियंत्रण पा लेता है, बल्कि संसार के बन्धन से मुक्त होकर पूर्ण वीतराग संत बन जाता है।सतगुरु का शक्तिपात और सुषुम्ना की जागृत१. शक्ति का संचारसतगुरु के भीतर सदैव जाग्रत चेतना-शक्ति (कुण्डलिनी) सक्रिय रहती है।जब गुरु अपनी कृपा-दृष्टि, स्पर्श, वाणी या मात्र संकल्प से शिष्य पर यह शक्ति प्रकट करता है, तो उसे शक्तिपात कहते हैं।यह शक्ति शिष्य के मूलाधार में स्थित सुप्त शक्ति को स्पर्श करके सुषुप्ति से जागृत करती है।२. सुषुम्ना का खुलनासामान्यतः प्राण केवल इड़ा-पिंगला में घूमते रहते हैं।शक्तिपात से प्राण-धारा का एक अंश सुषुम्ना में प्रवाहित होने लगता है।धीरे-धीरे इड़ा-पिंगला का दबदबा कम हो जाता है, और मध्य मार्ग (सुषुम्ना) सक्रिय होता है।३. मन पर नियंत्रणइड़ा = चंद्र (मन, कल्पना, सुख-दुख),पिंगला = सूर्य (कर्म, इच्छा, बाहरी क्रिया)।गुरु के शक्तिपात से मन संतुलित होता है और शिष्य के भीतर शांति, स्थिरता, वीतरागता आती है।४. बोध और जागरणशक्तिपात से शिष्य को ऐसा अनुभव होता है मानो भीतर प्रकाश, स्पंदन, ऊर्जा या दिव्य धारा प्रवाहित हो रही है।मन अपने आप भीतर मुड़ता है।यही ध्यान का सहज प्रारंभ है।५. सतगुरु की कृपा का रहस्ययह केवल गुरु की कृपा और शिष्य की पात्रता पर निर्भर करता है।गुरु अपनी चेतना-शक्ति से शिष्य के चित्त को शुद्ध कर देता है, ताकि सुषुम्ना मार्ग खुल सके।यही कारण है कि शास्त्रों में कहा गया है –”गुरु कृपा ही केवल साधन है।”सतगुरु का शक्तिपात = प्राण का सुषुम्ना में प्रवाह।

इससे इड़ा-पिंगला का रोल कम होकर मध्य मार्ग खुलता है।

शिष्य के भीतर वीतरागता, ध्यान, और आत्मानुभूति सहज रूप से प्रकट होने लगती है।

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