“मैं” (अहं, अहंकार, व्यक्तिगत पहचान) और “तू” (ईश्वर, परमसत्ता, या दुसरा/अन्य) के बीच के संबंध की खोज है।व्याख्या”जानता हूं मैं का अस्तित्व नहीं है” – यहाँ ‘मैं’ को शून्य या माया मान लिया गया है, जैसे अद्वैत वेदांत में कहा गया है कि जो व्यक्तिगत अहं है, उसका कोई स्थायी अस्तित्व नहीं।”पर मैं नहीं तो क्या तू तक तू है” – यह प्रश्न उठाता है कि यदि ‘मैं’ का अस्तित्व ही न हो तो ‘तू’ (ईश्वर या अन्य) का अनुभव कैसे होगा? क्योंकि अनुभव करने वाला तो यही ‘मैं’ है।”तू अगर है तो मैं भी जरूरी है” – इसका तात्पर्य यह लगता है कि ईश्वर या ‘तू’ की उपस्थिति का बोध तभी होता है जब कोई ‘मैं’ का भाव भी हो। अनुभव और अनुभूत दोनों का संबंध आवश्यक प्रतीत होता है।दार्शनिक दृष्टिकोणअद्वैत वेदांत में– “मैं” और “तू” अलग-अलग नहीं, बल्कि एक ही ब्रह्म का भान है। “मैं” मिटने पर “तू” भी अलग नहीं बचता, सिर्फ एक अखंड सत्ता रह जाती है।भक्ति परंपरा में– ‘मैं’ और ‘तू’ की दूरी ही प्रेम और भक्ति का आधार है। बिना ‘मैं’ के ‘तू’ से संवाद और समर्पण संभव नहीं।बौद्ध दृष्टिकोण में– यहाँ कहा जाएगा कि न तो कोई स्थायी “मैं” है न “तू”, बल्कि अनुभव ही परस्पर निर्भरता (प्रतित्यसमुत्पाद) से होता है।सरल भावआपकी पंक्ति इस दुविधा को उजागर करती है कि -“ईश्वर का अस्तित्व मेरे अनुभव से जुड़ा है। मेरा होना उसका प्रमाण है। पर यदि मैं ही भ्रम हूं तो उसका होना भी मेरे लिए उसी भ्रम पर टिका है।”