आज्ञा चक्र, प्राणवायु चक्र, सहस्रार चक्र, मूर्धा, कूर्म नाड़ी, प्राण और आत्मा का गमन, ऊर्जा के सहारे चक्र भेदन और गुरु द्वारा शक्तिपात — यह सब योगशास्त्र और तंत्रशास्त्र में अत्यंत गूढ़ और आंतरिक प्रक्रिया मानी जाती है। मैं इसे क्रमवार स्पष्ट करता हूँ:
- आज्ञा चक्रस्थान: भ्रूमध्य (दोनों भौहों के बीच)तत्व: मन और बुद्धि
कार्य: साधक की चेतना को अंतर्मुख करने का मुख्य द्वार।
जब साधक यहाँ स्थिर होता है तो विचार-धारा शांत होने लगती है। - सहस्रार चक्र
स्थान: मस्तक के शिखर पर (ब्रह्मरंध्र)
तत्व: शुद्ध चैतन्य, सहस्रदल कमल।कार्य: यहाँ आत्मा का परमात्मा से मिलन कहा जाता है।
यहाँ पहुँचने पर साधक की चेतना पूर्ण रूप से ब्रह्म में विलीन हो जाती है। - मूर्धा (ब्रह्मरंध्र)
यह शिरोभाग (शीर्ष) का वह सूक्ष्म केंद्र है जहाँ से प्राण अंततः शरीर को त्यागता है।
गीता (८.१२-१३) में “मूर्ध्नि प्राणमावेश्य” कहा गया है—मृत्यु समय प्राण यहाँ लाना। - कूर्म नाड़ी
प्राणायाम और योगशास्त्र में वर्णित सूक्ष्म नाड़ी।
इसका कार्य प्राण को स्थिरता देना और मन को भीतर खींचना है।
यह स्थिरता साधक को ध्यान और समाधि की गहराई में ले जाती है। - प्राण और आत्मा का गमन
शास्त्रों के अनुसार प्राण और आत्मा सूक्ष्म शरीर के साथ अंत में मूर्धा (ब्रह्मरंध्र) से बाहर जाते हैं।
यदि साधक ने आज्ञा से सहस्रार तक मार्ग खोल लिया है, तो प्राण ब्रह्मरंध्र से निकलकर ऊर्ध्वगति करता है।
यही “ऊर्ध्वरेता” या “ऊर्ध्वगमन” कहा जाता है। - गुरु द्वारा शक्तिपात
शक्तिपात का अर्थ है—गुरु अपनी जाग्रत चेतना और ऊर्जा के माध्यम से शिष्य के भीतर सुप्त शक्ति (कुंडलिनी) को स्पर्श कर देना।
इससे साधक की सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय होती है।
इड़ा (चंद्र) और पिंगला (सूर्य) की पकड़ ढीली होकर मध्य मार्ग खुलने लगता है।
तब चक्र-भेदन (निचले से ऊपर तक चक्रों में ऊर्जा का आरोहण) स्वतः होता है। - चक्र-भेदन (ऊर्जा का आरोहण)
साधक जब साधना, प्राणायाम, मंत्र और ध्यान से तैयार हो जाता है, तब उसकी कुंडलिनी सुषुम्ना में प्रवेश करती है।
वह मूलाधार से ऊपर बढ़ते हुए क्रमशः स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और अंततः सहस्रार को भेदती है।
हर चक्र पर अनुभव और शक्तियाँ अलग-अलग रूप में प्रकट होती हैं।8. मुख्य बात
यह प्रक्रिया केवल तैयार साधक में ही सुरक्षित रूप से घटती है।
शक्तिपात का उद्देश्य चक्रों को “जबरन” खोलना नहीं, बल्कि शिष्य के भीतर की शुद्धता, वैराग्य और ध्यान की गहराई को तेज़ करना है।गुरु का काम केवल मार्ग को स्पर्श कराना है; स्थिरता और शुद्धता साधक को खुद अर्जित करनी पड़ती है।9. शास्त्रीय आधार
गीता (८.१०-१३), योगसूत्र, हठयोग प्रदीपिका, शिव संहिता और तंत्रागमों में इन विषयों का वर्णन मिलता है।
योगशिखोपनिषद और गुरुगीता में गुरु की भूमिका और प्राणगमन का उल्लेख है।
गुरु शक्तिपात करके शिष्य की सुप्त शक्ति को जाग्रत करता है, जिससे सुषुम्ना सक्रिय होती है, प्राण ऊपर की ओर जाता है और आज्ञा से सहस्रार तक चक्र भेदन संभव होता है। यह ऊर्जा आत्मा को ऊर्ध्वगमन में सहायक बनाती है, और अंततः सहस्रार पर ब्रह्मानुभूति कराती है।