मैंके साथ मैं मिल सकता है पर मैनके साथ तू नहीं इ स पंक्ति में बहुत गहरी दार्शनिक और आध्यात्मिक प्रतीति है। इसका अभिप्राय “मैं” और “तू” के स्वरूप के भेद के पार जाने से है।भावार्थ“मैं के साथ मैं मिल सकता है” → अहंकार या व्यक्तित्व का ‘मैं’ अपने ही समान का अनुभव कर सकता है, पर वह सीमित ही रहता है। यह आत्मकेंद्रितता है।“तू के साथ मैं नहीं” → जब तक ‘मैं’ और ‘तू’ अलग-अलग हैं, तब तक मिलन असंभव है। यह द्वैत (dualism) की स्थिति है।“अगर मैं और तू मिल जाये तो सृष्टि बदल सकती है” → यदि ‘मैं’ और ‘तू’ का भेद मिट जाए, तो अद्वैत की स्थिति उत्पन्न होती है। यही वह आध्यात्मिक एकता है जिसमें अहंकार का विसर्जन होकर सामूहिक चेतना प्रकट होती है, और वही सृष्टि का नया परिप्रेक्ष्य रच देती है।दर्शन से संबंधवेदांत कहता है कि जीव और ब्रह्म अलग नहीं हैं, जब यह मिलन होता है तो माया का आवरण हटकर अद्वैत का अनुभव होता है।सूफ़ी संत भी कहते हैं: मैं कौन हूँ, और तू कौन है? जब यह दो ‘अलगपन’ मिट जाए, तभी हक़ीक़त प्रकट होती है।कबीर ने भी कहा है कि “जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं; सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माहीं।”अर्थात, जब “मैं और तू” एक हो जाएँ, तब व्यक्तिगत और सार्वभौमिक चेतना का विलय होता है। यह मिलन सृष्टि के देखने का ढंग ही बदल देता है।