धर्म का सार: करुणा, सेवा और मानवता

“मानव है और मानवता ही धर्म है” इस विचार का अर्थ है कि मानव होने का सार मानवता में निहित है, और मानवता ही सच्चा धर्म है। इसका तात्पर्य यह है कि धर्म का असली स्वरूप मानवता यानी दूसरों के प्रति दया, करुणा, सेवा भाव और परोपकार में प्रकट होता है। धर्म और मानवता का गहरा संबंध है, क्योंकि धर्म मनुष्य को नैतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक रूप से ऊँचा उठाने का मार्ग देता है, जिससे मानव की आत्मा और समाज दोनों का विकास होता है।आचार्य प्रशांत के अनुसार, “धर्म वह शिक्षा है जो मानव में उच्चतर मूल्यों की स्थापना करती है” और मानव को मानव बनाता है। अगर मानव में नैतिक आध्यात्मिक शिक्षा न हो तो वह बस एक बुद्धिमान जानवर है, मानवता नहीं। इसलिए धर्म के बिना मानवता अधूरी है। इसी प्रकार, मानवता सेवा, दया, और स्वार्थहीनता की भावना है, जो धर्म की मूल कसौटी है। मानवता में जाति, धर्म, देश आदि भेदभाव का स्थान नहीं और यह सभ्यता और संस्कृति की रीढ़ की हड्डी है। जिस मनुष्य में मानवता का अनुभव होता है, वही सच्चा धर्मी है।संक्षेप में, मनुष्य का धर्म उसकी मानवता है, और धर्म का आधार मानवता की सेवा, प्रेम और करुणा है। एक आध्यात्मिक दृष्टि से मानव वह है जो धर्म के अनुसार जीवन जीता है, और धर्म का सार मानवता के माध्यम से प्रकट होता है। यही अर्थ “manav hai or manvta hi dharm hai v dharm nirpesha v adhyatmik manav hai” की अभिव्यक्ति में निहित है।यह व्याख्या इस बात को स्पष्ट करती है कि धर्म का लक्ष्य केवल आचार-विचार या बाहरी नियम नही, बल्कि मानवता का आंतरिक विकास और उनके प्रति करुणा भाव है

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