जीवित वीतरागी: जीवन रहते ही मुक्ति का अनुभव

“जीवित वीतरागी” का अर्थ है – ऐसा साधक या महापुरुष जो जीवन रहते हुए (शरीर सहित) राग-द्वेष से मुक्त हो चुका है।अध्यातम दुनिया मे जो संत हुवे है केवेली पद पर उनके लिए वीतरागी बनना संभव ही नही वास्तब में होते है उनके शरीर पर उनकी वोजे होती है विकारो से मुक्त साधा जीवन न छह न मोह न कोई इच्छा बस ईश्वर की रजा में रजा ओर गुरु के आदेश के अनुसार आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले होते हैक्या यह संभव है?हाँ, शास्त्रों में और परंपरा में इसका स्पष्ट उल्लेख है। वीतराग होना केवल मृत्यु या शरीर छोड़ने के बाद का परिणाम नहीं है। जीवित अवस्था में भी मनुष्य पूर्ण आत्मज्ञान और वैराग्य के बल से वीतराग हो सकता है।जैन दर्शन में अरिहंत को “जीवित वीतराग” कहा जाता है — क्योंकि वे सब राग-द्वेष से मुक्त होकर भी जीवित रहते हैं और लोककल्याण करते हैं।गीता (२.५६, २.७१ आदि) में भी “स्थितप्रज्ञ” और “तृष्णा-विहीन” पुरुष का वर्णन है, जो वीतराग है।अद्वैत वेदांत में जीवन्मुक्ति इसी को कहते हैं – जब आत्मा शरीर में रहते हुए भी राग-द्वेष और कर्मबंधन से परे हो जाती है।लक्षण जीवित वीतरागी संत के लक्षण

  1. राग-द्वेष, लोभ-मोह, क्रोध आदि का पूर्ण क्षय।
  2. आत्मा की अखंड शांति और आनंद का अनुभव।
  3. संसार के सुख-दुख में समानभाव।
  4. किसी से कुछ लेने या पाने की अपेक्षा न होना।
  5. केवल करुणा और कल्याण की भावना से लोक के लिए कार्य करना।
    महावीर स्वामी, बुद्ध, आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, संत कबीर आदि को जीवित वीतराग कहा जा सकता है।इसलिए, हाँ – जीवित वीतराग होना संभव है, और यही मुक्ति का सर्वोच्च आदर्श है – जीवन्मुक्ति।

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