किसी भी उच्च साधक जिसे संत कहा जाता है, जब वह समाधि की अवस्था में होता है, तो उसका शरीर और चेतना आकाश तत्व के साथ एकाकार हो जाती है। इस अवस्था में सांस की गति अत्यंत धीमी या नगण्य महसूस होती है क्योंकि साधक की आत्मा और शरीर पंचतत्वों में से आकाश तत्व के साथ मिलकर स्थिर और सीमाहीन चेतना की अवस्था प्राप्त कर लेती है। ऐसे साधक ध्यान की अत्यंत गहन अवस्था में होते हैं जहां सांस का स्पर्श लगभग महसूस नहीं होता, और वे संसार के भौतिक सम्बन्धों से मुक्त हो जाते हैं।समाधि की स्थिति में साधक का ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय का भेद समाप्त हो जाता है। शरीर की सामान्य चेतना और सांस की गति दब जाती है क्योंकि साधक पूर्णतया ब्रह्म के साथ लीन हो जाता है। ऐसा कहा जाता है कि साधक अपनी सूक्ष्म चेतना को आकाश तत्व में विलीन कर लेता है, जिससे सांस की गति अत्यंत न्यूनतम या महसूस न हो पाने जैसी होती है। यह स्थिति साधना की उच्चतम अवस्था मानी जाती है, जहां बाहरी इंद्रियों का प्रभाव समाप्त हो जाता है और साधक निर्विकार मानसिक एवं आध्यात्मिक चेतना में प्रवेश कर जाता है।इसलिए, जब कोई उच्चवह कोटि का साधक समाधि में होता है तो उसकी सांस की गति नगण्य लगती है, क्योंकि उसके शरीर और प्राण तत्व का प्रभाव आकाश तत्व के साथ जुड़कर विलीन हो जाता है। यह स्थिति साधक की परम आध्यात्मिक विजय और मोक्ष की निशानी मानी जाती है जो पूर्ण शांति एवं परमात्मा के साथ एकरूपता दर्शाती हैओम या अजपा जाप की गणना करना कठिन या असंभव माना जाता है क्योंकि यह रोम-रोम से निकलने वाली ध्वनि से जुड़ा है जो समाधि की अवस्था में लगभग शून्य सी हो जाती है। इस तरह की आंतरिक, अतिसूक्ष्म और निरंतर ध्वनि की गणना या सीमित करना संभव नहीं होता। जब कोई व्यक्ति अति उत्तम या गहन समाधि की स्थिति में होता है, तब इस आत्मस्वरूप ध्वनि की गणना करने का प्रयास व्यक्ति को सीमित कर देता है, क्योंकि यह गणना बाहरी और मात्रात्मक सोच में बंध जाती है, जो इस अनंत और निराकार अनुभूति के लिए उपयुक्त नहीं होती।