उपनिषदों के अनुसार, नाद ब्रह्म (शब्द-ब्रह्म) वह दिव्य ध्वनि है जिससे ब्रह्मांड की उत्पत्ति होती है। यह अनाहत नाद कहलाता है, जो किसी भी बाहरी टकराव से उत्पन्न नहीं होता और सतत बना रहता है। मांडूक्य उपनिषद में ओंकार को परब्रह्म का स्वरूप माना गया है, जिसमें तीन मात्राएँ अ, उ, म तथा उनके अव्यक्त रूप शामिल हैं। यही नाद ब्रह्म है जो सम्पूर्ण सृष्टि के संचालन का आधार है और सभी जीवधारियों में समान रूप से सक्रिय होता है।नाद ब्रह्म की साधना के लिए उपनिषदों में ध्यान और मानसिक एकाग्रता का विशेष महत्व बताया गया है। साधक को अव्यक्त नाद के अनुभव, जैसे कि प्रारम्भ में विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ सुनाई देती हैं, और बाद में वह शुद्ध एवं सूक्ष्म रूप में आत्मा में प्रगट होती हैं, का अभ्यास करना चाहिए। साधना में नाद की गहराई में उतरना, मानसिक ताप का शमन करना, और ‘ॐकार’ के माध्यम से परब्रह्म का साक्षात्कार करना शामिल है। नादबिन्दु उपनिषद में भी अभ्यास द्वारा अकार और मकार को जीतकर सम्पूर्ण ॐकार को आत्मसात करने का वर्णन है, जिससे तुर्यावस्था की प्राप्ति होती है।संक्षेप में, नाद ब्रह्म उत्पन्न होता है आध्यात्मिक ओंकार से, जो ब्रह्म की मूलध्वनि है। उसकी साधना में निरंतर ध्यान, मानसिक संयम, और नाद की सूक्ष्म ध्वनि का अनुभव आवश्यक है, जैसा कि मांडूक्य उपनिषद, तैत्तिरीय उपनिषद एवं नादबिन्दु उपनिषद में बताया गया है।