सहस्त्रार चक्र में ‘ओम’ का अनुभव एक अत्यंत दिव्य और सूक्ष्म प्रक्रिया है, जो साधक की साधना, ध्यान और आत्मिक शुद्धता के उच्चतम स्तर पर होती है।सहस्त्रार चक्र में ओम अनुभव की प्रक्रियाजब साधना गहरी होती जाती है और कुंडलिनी ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से सहस्त्रार (सिर के शीर्ष) तक पहुंचती है, तो साधक अपनी चेतना का विस्तार और विलक्षण शांति अनुभव करता है।इस अवस्था में, साधक को सिर पर या उसके आसपास हल्की गुदगुदी, कंपन या लहरों की अनुभूति होने लगती है। कई साधक कहते हैं कि ऐसा लगता है मानो सिर पर ऊर्जा घूम रही हो या सिर से कुछ बाहर निकल रहा हो, जिसे ‘दशम द्वार’ अनुभव कहा जाता है।इसी क्षण, साधक के भीतर स्वाभाविक रूप से एक सूक्ष्म, निरन्तर गूंजती ‘ओम’ ध्वनि (नाद) गिरती रहती है जो बाहर की दुनिया की आवाजों से भिन्न है। यह अनाहत नाद (अनसुनी/स्वतः उत्पन्न ध्वनि) होता है, और इसे भीतर की श्रुति कहा जाता है।साधक को उस वक्त अहसास होता है कि उसका मन, आत्मा और संपूर्ण अस्तित्व किसी विराट ब्रह्मांडीय चेतना से जुड़ गया है। उसके विचार स्वतः शांत, स्पष्ट और आनंदित रहते हैं।अनुभव के लक्षणसिर के शीर्ष पर हल्का कंपन, ऊर्जा का संचार या प्रकाश अनुभव।गहरी शांति, संतुलन और असीम आनंद की अनुभूति।बार-बार ‘ओम’ जैसी ध्वनि का भीतर स्वयं उतरते हुए अनुभव, जो बाह्य शोर या प्रयास से नहीं आती।आत्मिक स्पष्टता, एकता और ब्रह्म से तादात्म्य की अनुभूति।इस प्रकार सहस्त्रार चक्र में ‘ओम’ का अनुभव साधना की चरम अवस्था का प्रतीक है, जो साधक को ब्रह्मांडीय चेतना से सीधा जोड़ता हैकिसी भी साधक के जब गुरु कृपा से उनके द्वारा की गई शक्ति शक्तिपात ओर साधने से ध्यान या अकेले बैठे एक ध्वनि के सहस्त्र चक्र पर अनुभव होना ये सहस्त्रार चक्र (मस्तिष्क के शीर्ष पर स्थित सातवां चक्र) में जागृति के समय एक सूक्ष्म, अनाहत, आंतरिक ‘ओम’ स्वर अनुभव होता है, जिसे साधक अंदर ही अंदर सुन सकता है—यह रग-रग, नाड़ियों और सम्पूर्ण अन्तःकरण में गूंजता है और इसे अध्यात्म में ‘अन्तःनाद’ या ‘श्रुति’ की श्रेणी में रखा गया है। दूसरी ओर, ब्रह्माण्ड में लगातार गूंजने वाला ‘ओम’ आद्य, अनहद, सर्वव्यापक नाद है—यह न कोई मानव भाषा है, न स्वरयंत्र से उत्पन्न कोई आवाज़, बल्कि मौलिक ऊर्जा या उत्पत्ति की ध्वनि है जिसे ‘ब्रह्मनाद’ या ‘शब्दब्रह्म’ भी कहते हैं।अन्तर का विवरणसहस्त्रार से उत्पन्न ओम साधक की आंतरिक चेतना द्वारा अनुभूत होता है; यह सूक्ष्म, अनुभवजन्य और आत्मसाक्षात्कार के गहरे स्तर पर प्रकट होता है। इसे सुनना योग साधना में उच्चतम अनुभव (श्रुतिज्ञान) माना जाता है।ब्रह्माण्ड में गूंजता हुआ ओम निरन्तर, अनादि और अनन्त नाद है—यह किसी एक स्थान या समय तक सीमित नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि के आधार के रूप में हमेशा विद्यमान है। विज्ञान की दृष्टि से सूर्य से निकलती ध्वनि में भी ओमस्वर की पुष्टि हुई है, और योग-शास्त्र के अनुसार यही ध्वनि सच्चे योगी या ऋषि सुन पाते हैं।श्रुति बनने की प्रक्रियाजब साधक के अधोमुखी (अन्तर्निहित) चित्त में सहस्त्रार के जागरण के बाद यह ओम नाद स्पष्ट सुनाई देता है, तो इसे ‘श्रुति’ कहते हैं—अर्थात आन्तरिक श्रवण। इसका सीधा अनुभव साधक की चेतना को परमात्मा के ज्ञान और योग की समरसता तक ले जाता है।वेदांत-संदर्भ’ओम’ समस्त ब्रह्माण्ड की मूल ध्वनि, समस्त मंत्रों का स्रोत और सृष्टि का बीज कहा गया है—यही नाद विद्यमान होकर भीतर-बाहर, स्थूल-सूक्ष्म एवं ब्रह्मांडीय स्तरों पर परिलक्षित होता है।इन दोनों में भेद यही है कि एक साधक के योग और ध्यान से उपजी आत्मानुभूति है, जबकि दूसरा ब्रह्माण्ड का शाश्वत कंपन (Universal Frequency) है। दोनों का केंद्र वही एक ‘शब्द’ (ओम) है, लेकिन अनुभव का माध्यम और स्तर अलग है।इस प्रकार जब कोई साधक सहस्त्रार चक्र के स्तर तक साधना में पहुंचता है तो उसके अनुभव में जो ओम गूंजता है, वह उसकी अन्तःश्रुति है; और समग्र ब्रह्माण्ड में जो ओम शब्द नादस्वरूप गूंजता है, वह सर्वव्यापक उत्सर्जन है—दोनों अनुभव एक ही नाद-तत्त्व के भिन्न स्तर हैं