संयम और धैर्य: एक नैतिक शिष्य के जीवन के दो स्तंभ

आध्यात्मिक जीवन में सय्यम (Self-control) और धैर्य (Patience) एक नैतिक शिष्य के लिए अनिवार्य गुण हैं, क्योंकि यही दोनों साधना को स्थिर, शुद्ध और फलप्रद बनाते हैं ।संयम का महत्वसंयम का अर्थ है इन्द्रियों और भावनाओं पर नियंत्रण रखना ताकि मन सदा विवेकपूर्ण रहे असंयम से व्यक्ति अपने नैतिक मूल्य खो देता है, जबकि संयमशील साधक अपनी आत्मा की ऊर्जाओं को सही दिशा में लगाए रखता है । संयम के आधार स्तम्भ हैं — विवेक, सहनशीलता, अनुशासन, संतोष और संवेदनशीलता । यही गुण शिष्य को स्थिर और नैतिक बनाते हैं ताकि गुरु की दी हुई दिशा में वह विचलित न हो ।महावीर स्वामी की साधना भी संयम की चरम अवस्था का उदाहरण देती है, जहाँ उन्होंने कठिन अपमान और पीड़ा को शांतचित्त होकर सहन किया । यही संयम आत्मबल का स्रोत है।धैर्य का महत्वधैर्य आध्यात्मिक उत्थान का प्रथम सोपान है बिना धैर्य के साधक जल्दबाजी में साधना का सार खो देता है । लम्बे समय की साधना, निरन्तरता, और अनुशासन से ही मानसिक शुद्धि और आत्मोन्नति प्राप्त होती है। रविशी प्रसाद के अनुसार, जो धैर्यवान होता है, उसमें न मानसिक अशांति होती है, न अनैतिक प्रवृत्ति ।धैर्य हमारे मन के संतुलन को स्थिर करता है — यह “गुणवत्ता” का बीज है, जो जीवन के हर कार्य में सच्ची सफलता और स्थायी शांति देता है ।एक नैतिक शिष्य की दृष्टि सेएक सच्चा शिष्य अपने गुरु के उपदेशों का पालन करते हुए संयम और धैर्य को अपने आचरण में उतारता है वह अस्थिरता, उतावलापन या हताशा को दूर रखता है, क्योंकि गुरु शिष्य के असीम धैर्य की परीक्षा लेते हैं इसलिए नैतिक शिष्य के लिए धैर्य और संयम न केवल साधना के उपकरण हैं, बल्कि उसके चरित्र, निष्ठा और आत्मबल का मूलाधार हैं ।संक्षेप में,संयम मन का अनुशासन है,धैर्य आत्मा की स्थिरता है —और इन दोनों के साथ ही शिष्य का जीवन नैतिक, स्थिर और आत्मोन्मुख बनता है

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