गुरु का निज शब्द: आत्मा को ब्रह्म में विलीन करने वाला स्वर

अध्याय: गुरु-निजशब्द और आत्म-एकत्व का रहस्य१. उपोद्घातउपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्मविद्या वही है जो श्रोतव्य, मन्तव्य, और निदिध्यासन के माध्यम से शिष्य के अंतःकरण में उद्भासित होती है। यह ज्ञान केवल बुद्धि से नहीं, बल्कि गुरु की कृपा और निज शब्द के आन्तरिक अनुभव से प्राप्त होता है।गुरु वह सेतु है जो सीमित आत्मा को असीम आत्मा से जोड़ देता है। जब शिष्य का अहंकार पिघल जाता है, तब उसके भीतर का नाद—जो स्वयं ब्रह्म का स्वर है—उद्घोषित होता है।२. उपनिषद-दर्शन: नाद और आत्मबोध”यथा नद्या: स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय। तथाविद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥” (छाँदोग्य उपनिषद् 6.10.1)अर्थ—जैसे नदियाँ समुद्र में लीन होकर अपना नाम-रूप छोड़ देती हैं, वैसे ही विद्वान आत्मा को पहचानने वाला व्यक्ति नाम-रूप से परे दिव्य पुरुष में लीन हो जाता है।यहाँ ‘नाद’ उसी परम पुरुष का सूक्ष्म स्वर है। यह नाद एक औपचारिक ध्वनि नहीं, बल्कि चेतना की उस तरंग का अनुभव है जो गुरु के उपदेश से जीवित हो उठती है।३. कबीर और आत्म-चेतना की एकताकबीर कहते हैं—”सतगुरु सोई जो दिन दिन देई, चेतन में चित धरावे।नाम रस अंतः पान करावे, मन निर्मल करि जावे॥”यहाँ ‘नाम रस पान’ का अर्थ है निज शब्द का अनुभव। यह अनुभव केवल उच्चारण नहीं बल्कि चेतना की परिष्कृति है। जब शिष्य श्रद्धा से गुरु-वाणी को अपने भीतर गीतवत अनुभव करता है, तभी ‘नाम’ जीवित होकर ब्रह्मनाद में रूपांतरित होता है।४. नानक और दादू की साधना-दृष्टिगुरुनानक कहते हैं— “सुनिए सिद्घ, पीर, सुर, नाथ।”अर्थात श्रवण ही साधना है। यह श्रवण केवल कान का नहीं बल्कि हृदय का श्रवण है, जिसमें गुरु का आकाशीय वचन नादस्वरूप उतरता है।दादू दयाल ने भी कहा—”गुरु की नैनन दीखत नाहीं, गुरु की वाणी सुन।अंतर जप कर नाम तू, अंतर ही ब्रह्म गुन॥”यह स्पष्ट करता है कि गुरु की कृपा अंतःकरण को प्रकाशित करती है, जिससे आत्मचेतना स्वयं ब्रह्मगुण में परिवर्तित हो जाती है।५. गुरु-शिष्य एकत्व की मनोविज्ञानिक प्रक्रियाजब शिष्य गुरु के निज शब्द में तन्मय होकर ध्यान करता है, तो उसका अहं स्वतः गलने लगता है। इस प्रक्रिया में—चित्त की तरंगें शांत होती हैं।देह-चेतना अमृत-स्वरूप में रूपांतरित होती है।भीतर से उत्पन्न नाद गुरु की चेतना से एक हो जाता है।यह स्थिति अहं के परे की अनुभूति है — जहाँ शिष्य और गुरु में भेद नहीं रहता। यही आत्म-समाधि या परमानंद की स्थिति है।६. साधना-सूत्र (व्यवहारिक अभ्यास)सत्संग अनुशासन: सप्ताह में कम से कम तीन बार गुरु वचनों का श्रवण करें और उनके अर्थ पर 10 मिनट ध्यान करें।निज शब्द ध्यान: प्रतिदिन 20-25 मिनट आन्तर-नाद पर ध्यान केंद्रित करें। प्रारंभ में श्वास पर ध्यान, फिर अंदर उठती सूक्ष्म ध्वनि की ओर।श्रद्धा और निष्ठा: गुरु के प्रति भय-रहित समर्पण रखें; प्रश्न उठें तो उन्हें शांति से गुरु-चेतना से पूछें।चित्त-शुद्धि के उपाय: आसान प्राणायाम, जप, और आत्म-स्मरण से मन की स्वच्छता बनाएँ।७. निष्कर्षगुरु के निज शब्द का श्रवण और आत्मसात करना आत्म-विलय का सर्वोच्च साधन है। जब शिष्य गुरु के कृपा-प्रकाश से देह-मन की सीमाएँ पार करता है, तब उसकी आत्मा नाद-ब्रह्म में विलीन हो जाती है। यही परम अनंद की दशा है—जहाँ ज्ञाता, ज्ञेय, और ज्ञान, तीनों एक हो जाते हैं।

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