सूफ़ी कहावत “शीश कटे गर सत-गुरु मिले, तो भी सस्ता जान” का अर्थ है कि यदि कोई शिष्य अपने अहंकार और माया का शीश (सर) गुरु की प्राप्ति के लिए कटवा देता है, तो भी यह सौदा बहुत सस्ता है, क्योंकि गुरु की प्राप्ति से हृदय जागृत हो जाता है और आत्मा मुक्ति की ओर बढ़ती है। यह कबीर दास जी का भी दोहा है, जिसमें शरीर को विष की बेल्ली और गुरु को अमृत की खान कहा गया है, अर्थात शरीर माया से भरा हुआ है, लेकिन गुरु की कृपा अमृत समान है। गुरु मिल जाने पर शीश कटवा देना यानी अहं के त्याग से बढ़कर कुछ नहीं ।कल्बे सलीम का अर्थ है एक ऐसा हृदय जो पूरी तरह से शुद्ध हो, जिसमें अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, और सांसारिक इच्छाओं का अभाव हो, और जो निरंतर ईश्वर के नाम से जागृत रहता हो। हदीसों में भी बताया गया है कि जो व्यक्ति कल्बे सलीम (=स्वस्थ, निर्मल हृदय) लेकर आता है वही कामयाब होता है। यह हृदय ईश्वर के नाम की जाप से पूर्णतः जागृत होता है और उससे अन्य किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं रहती ।सूफ़ी मत में सतगुरु या कामिल मुर्शिद मिलने का मतलब है वह गुरु जो हमारे अंदर की नींद को तोड़कर हमें सत्य-ज्ञान और ईश्वर-स्मरण की ओर ले जाता है। जब गुरु का साक्षात्कार होता है तो भीतर का पुराना अहं और माया नष्ट हो जाते हैं, और हृदय जागृत हो जाता है, यही “शीश कटना” या “अहं का कटना” है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति मुक्ति की ओर अग्रसर होता है ।इसका तुलनात्मक अर्थ उपनिषदों और भगवद्गीता में भी मिलता है जहाँ ज्ञान और भक्ति मार्ग से अहंकार का नाश और परमात्मा की प्राप्ति की बात कही गई है। उदाहरण के लिए भगवद्गीता में कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने अहंकार, माया और सांसारिक वासनाओं का त्याग करता है और ईश्वर में समर्पित होता है, वही सच्चा मुक्त होगा।संक्षेप में, सूफ़ी वाक्यांश यह सिखाता है कि गुरु के चरणों में अहंकार का समर्पण और हृदय का ईश्वर-नाम द्वारा जागरुक होना समस्त सांसारिक बलिदानों से श्रेष्ठ और सस्ता सौदा है। सतगुरु की कृपा से यह संभव होता है और यही असली कामयाबी