कर्म और ज्ञान: मुक्ति के दो पथ, एक ही सत्य की खोज

मेरे मन मे विचार आया कि कर्म और ज्ञान या ज्ञान और कर्म दोनो में भेद क्या है या दोनो ही या कोन प्रमुख है ज्ञान और कर्म दोनों भारतीय दर्शन (विशेषकर वेदांत और गीता) में मुक्ति प्राप्ति के प्रमुख मार्ग माने गए हैं, परंतु उनका क्रम और आपसी संबंध कई तरह से समझाया गया है। विस्तार से देखें तो “कर्म के बाद ज्ञान” और “ज्ञान के बाद कर्म” में गहरा अंतर और कारण छुपा है।कर्म के बाद ज्ञानसाधारण जीवन में लोग पहले कर्म करते हैं, यानी अपने कर्तव्यों का पालन, अच्छे-बुरे कार्य, धार्मिक अनुष्ठान आदि करते हैं। इन कर्मों का उद्देश्य प्रारंभिक शुद्धता लाना होता है—अहंकार और वासनाओं का क्षय होता है।जब व्यक्ति इन कर्मों को सतत, निष्काम भाव से करता है (फल की कामना छोड़ते हुए), तो उसकी चित्तशुद्धि होती है। चित्तशुद्धि के बाद ही उच्चतर ज्ञान (आत्मज्ञान) की प्राप्ति संभव होती है।यहाँ कर्म एक साधन है, जिससे अंततः ज्ञान की पात्रता पैदा होती है। उदाहरण: गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं — “मुक्ति के लिए कर्मयोग से आरंभ करो, अंत में ज्ञानयोग में प्रवेश पाओ।”ज्ञान के बाद कर्मयदि व्यक्ति को आत्मा, ब्रह्म, या वास्तविकता का साक्षात ज्ञान हो गया—“मैं कर्ता नहीं हूँ, सब प्रकृति कर रही है”—तो उसके लिए बाह्य कर्म आवश्यक नहीं रह जाता। वह सहज, तृप्त, अप्रयत्न भाव में स्थित रहता है।’ज्ञान के बाद कर्म’ तब है जब कर्म सहज, निष्प्रयास रूप से होता है। ज्ञानी व्यक्ति अहंता और फलभाव को त्याग चुका होता है, अतः उसके कर्म होते हुए भी बंधन नहीं पैदा करते, वह ब्रह्मस्थिति में रहता है।अद्वैत वेदांत में स्पष्ट कहा गया है—“जहाँ ज्ञान प्रकट हो गया, वहाँ कर्म-बंधन नहीं रहता। ज्ञान और कर्म अलग हैं—जैसे अंधकार और प्रकाश।”मुख्य अंतरक्यों है अंतर?व्यक्ति की आत्मिक अवस्था के कारण: शुरुआत में चित्त अशुद्ध/अस्थिर, इसलिए कर्म-शुद्धि आवश्यक। परंतु जिसको आत्मज्ञान हो जाता है, उसकी कर्म-वृत्ति मुक्त हो जाती है—वह बंधता नहीं, कर्म साधन नहीं बल्कि स्वतःस्फूर्त हो जाता है।अद्वैत वेदांत में दर्शन स्पष्ट है—ज्ञान के लिए कर्म, या आंतरिक कर्तापन छोड़ना आवश्यक है। बाह्य कर्म नहीं, अहंभाव का अंत मुख्य है।गीता में दोनों मार्ग एक अंत (मुक्ति) तक पहुँचते हैं, पर कर्मयोग व्यावहारिक है; क्योंकि अधिकांश साधक तत्काल अहंता (ego) का पूर्ण त्याग नहीं कर पाते�।निष्कर्षकर्म से ज्ञान की पात्रता पैदा होती है, ज्ञान से कर्म सहज और बंधन-मुक्त हो जाता है। कर्म की शुद्धि से ज्ञान, ज्ञान से कर्म-मुक्ति—यही उनका आदान-प्रदान और अंतर हैकर्म के बाद ज्ञान और ज्ञान के बाद कर्म दो अवस्थाएँ हैं, जिन्हें सूक्ष्म रूप में समझना आवश्यक है। यहां उनके सूक्ष्म अंतर का विवेचन प्रस्तुत है:कर्म के बाद ज्ञान की सूक्ष्म अवस्थाप्रारंभ में व्यक्ति कर्म करता है क्योंकि उसके मन में अज्ञान (अविद्या) और अहंकार रहता है। कर्म उसके बाह्य शरीर-इन्द्रिय कार्यों का संचालन होता है, लेकिन कर्ता होने का भाव असली आत्मा में नहीं होता, बल्कि अहंकार में रहता है।जब कर्म निष्काम, बिना फल की इच्छा और बिना अहंभाव के किए जाते हैं, तब वे सात्विक हो जाते हैं। ऐसे कर्म चित्त को शुद्ध करते हैं, जिससे आंतरिक प्रकाश (ज्ञान) प्रकट होता है।ज्ञान की यह अवस्था तब आती है जब व्यक्ति समझ जाता है कि शरीर-मन कर्म करते हैं, आत्मा अकर्ता और शुद्ध है। यह ज्ञान कर्ता भाव का नाश करता है, जिसके फलस्वरूप कर्म बंद होने लगते हैं।इसलिए यहाँ कर्म वह माध्यम हैं जो तत्त्वज्ञान तक पहुँचने में सहायक होते हैं, और कर्म की प्रकृति तथा उसके साथ ज्ञान की जागृति सूक्ष्म स्तर पर स्पष्ट होती है।ज्ञान के बाद कर्म की सूक्ष्म अवस्थाजब व्यक्ति का आत्मज्ञान पूर्ण हो जाता है और वह कर्ता भाव से रहित हो जाता है, तब वह शरीर-इन्द्रिय कर्म करता है परन्तु वह कर्म उसके लिए बंधन नहीं पैदा करते।ज्ञानी का कर्म सहज, स्वाभाविक और अकर्म अर्थात बिना अंगीकार किए कर्म की तरह होता है। उसे कर्म में आसक्ति या फल की इच्छा न के बराबर होती है।कर्म यहाँ एक प्रकार की क्रिया मात्र होती है, जो प्रकृति के नियमों से स्वाभाविक रूप से होती रहती है, और स्वयं आत्मा अकर्ता बनी रहती है।सूक्ष्म रूप में यह उस स्थिति का प्रतिबिंब है जहाँ ज्ञान और कर्म के द्वैत का अंत हो जाता है, और कर्म भी मोक्ष का साधन नहीं बल्कि स्वाभाविक रूप होता है।सूक्ष्म अंतर सारांशइस सूक्ष्म विवेचन से स्पष्ट होता है कि कर्म और ज्ञान का संबंध क्रमबद्ध और गहन है। कर्म से अंतर्ज्ञान और चित्तशुद्धि प्राप्त होती है, जिससे ज्ञान की प्राप्ति संभव होती है। ज्ञान के पूर्ण होने पर कर्म कर्म नहीं रह जाते, बल्कि स्वाभाविक क्रियाएँ हो जाती हैं, जो बंधन उत्पन्न नहीं करतीं। यही सूक्ष्म तौर पर कर्म के बाद ज्ञान और ज्ञान के बाद कर्म का अंतर है और इसका कारण उनके मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक प्रभावों का भेद है।

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