चेतन ईश्वर के चार भाग: माया और दिव्यता का सुंदर रहस्य

ईश्वर के चेतन स्वरूप के चार भागों में तीन भाग माया से बाहर होते हैं और केवल चतुर्थ भाग में माया (मत्स्य) क्यों है, इसका कारण वेदांत और भक्तिक परंपराओं में समझाया गया है।माया का अर्थ है वह शक्ति जो चेतन ईश्वर के दिव्य स्वरूप को आच्छादित कर संसार और जीवों की परत दर परत स्वरूपों को उत्पन्न करती है। ईश्वर का त्रिभाग रूप है जहाँ तीन भाग पूर्ण रूप से चेतन, निर्मल और माया से मुक्त रहते हैं। परन्तु चौथे भाग में अर्थात संसारात्मक रूप में, माया का आवरण होता है, जो जीवों के संसार में बंधन का कारण बनता है।मत्स्य का अर्थ यहाँ माया के रूप में लिया गया है जो चेतन के एक भाग में पड़ी होती है और उसी से संसार के भिन्न-भिन्न रूप, कर्माश्रित पीड़ा और अनुभव उत्पन्न होते हैं। इसलिए ईश्वर के चेतन स्वरूप में तीन भाग माया से शुद्ध, निर्मल और मुक्त होते हैं जबकि चौथा भाग माया से आच्छादित होता है जिसके कारण वह जीवों और संसार से संबंध रखता है।इस प्रकार माया ईश्वर का अंश नहीं, बल्कि उसका प्राक्तन या प्रतिबिम्ब है जो चेतना के चौथे भाग में बनता है और उसी के कारण जगत और जीव अस्तित्व में आते हैं। इसलिए मत्स्य या माया सिर्फ एक भाग में होती है जहाँ से अनुभवात्मक जगत उत्पन्न होता है, जबकि मूल चेतन स्वरूप माया के ऊपर और उससे स्वतंत्र है।यह दृष्टिकोण ज्यादातर वैष्णव, अद्वैत और भक्तिक पंथों में मिलता है जहाँ ईश्वर पूर्ण चेतन और मुक्त है, पर उसकी माया ही संसार की उत्पत्ति का आधार है और इसी से जीवों का बंधन होता है। इस विवेचना के अनुसार ईश्वर के चार भागों में से केवल एक में माया होती है क्योंकि वही संसार की कर्मयुक्त अनुभूति का कारण बनती है।अतः माया का चतुर्थ भाग में होना ईश्वर के चेतन स्वरूप की विशिष्ट व्याख्या है जो चेतना, माया और माया से मुक्त दिव्यता के भेद को दर्शाती है।

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