गुरु की मेहर से शिष्य को स्वरूप प्राप्ति कैसे होती है, इसके लिए भगवद् गीता में कई श्लोक हैं जो गुरु-शिष्य के संबंध और गुरु की महत्ता को स्पष्ट करते हैं।गुरु की महत्ता और मेहरश्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में अर्जुन को ज्ञान देने से पूर्व गुरुत्व का परिचय दिया। पूर्ण स्वरूप प्राप्ति और आत्मज्ञान के लिए गुरु की कृपा आवश्यक है। गुरु, जो ब्रह्मज्ञान से परिपूर्ण होता है, शिष्य को सत्य मार्ग दिखाता है और उसके अज्ञान के अंधकार को दूर करता है। गुरु की मेहर से ही शिष्य को आत्मस्वरूप का साक्षात्कार होता है।भगवद् गीता के प्रमुख श्लोकगीता 4.34:”तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया,उपदेशं ब्रह्मनिष्ठं शिष्येभ्यः परिपालयेत्”अर्थ: गुरु को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके, प्रश्न पूछकर और उनकी सेवा करके ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए। गुरु की यह शिक्षा शिष्यों की आत्मा को उन्नत बनाती है।गीता 2.7:अर्जुन अपने ज्ञानाभाव और भ्रम को बताकर गुरु से मार्गदर्शन मांगते हैं। यह श्लोक गुरु के प्रति समर्पण और मेहर लेने की भावना दिखाता है।गीता 18.66:”सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज,अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:”इसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि सारे धर्म कर्म छोड़कर मेरी शरण में आएं, मैं उन्हें सभी पापों से मुक्त कर पूर्ण स्वरूप की प्राप्ति कराऊंगा।स्वरूप प्राप्ति कैसे होती हैगुरु की कृपा और अनुग्रह से शिष्य के हृदय का अज्ञान नष्ट होता है और उसे आत्मस्वरूप की अनुभूति होती है।गुरु के सान्निध्य में शिक्षाओं को श्रद्धा और भक्ति से ग्रहण करने पर मन, बुद्धि और चित्त का संशोधन होता है।गुरु शिष्य को कर्म, ज्ञान और भक्ति के माध्यम से आत्मज्ञान की ओर ले जाता है, जिससे शिष्य का परम स्वरूप जाग्रत होता है।भगवद्गीता के उपर्युक्त श्लोक इस प्रक्रिया को बताते हैं कि गुरु की महिमा, श्रद्धा, समर्पण और सेवा से शिष्य मुक्ति और स्वरूप ज्ञान प्राप्त करता है।गुरु की मेहर से स्वरूप प्राप्ति का मार्ग भगवद्गीता में श्रद्धापूर्वक गुरु की शरण में जाकर, उनसे निरंतर सेवा, प्रश्न-विप्रश्न तथा उपदेश ग्रहण करने से संभव होता है। गुरु ज्ञान और अनंत शक्तियों का स्रोत होता है, जो शिष्य को उसके वास्तविक स्वरूप का बोध कराता है और माया के बंधनों से मुक्त करता है। इस मेहर का अनुभव तभी संभव होता है जब शिष्य सतत गुरु का स्मरण और पालन करता है।इस प्रकार गुरु की मेहर शिष्य के भीतर चेतना का परिवर्तन कर उसे उसके परम अनन्त स्वरूप से जोड़ देती है। गीता के श्लोक 4.34, 2.7, और 18.66 इसे आत्मसात करते हैं और दिखाते हैं कि गुरु की कृपा से शिष्य को पूर्ण रूप से आत्मस्वरूप की प्राप्ति होती है।