अध्यात्म में अंतर्ध्यान: मन से आत्मा तक का मार्ग

जैसा कि हम साधना करने वाले गुरु के ज्ञान से जानते ह की अध्यात्मिक साधना में मन, आत्मा, शब्द साधना और समाधि की प्रक्रिया अत्यंत महत्वपूर्ण है। मन साधना की कड़ी में माध्यम है, आत्मा लक्ष्य है, शब्द (नाम या ध्वनि) मार्ग है और समाधि उसकी चरम अवस्था है, जिसमें अंतर्ध्यान (आंतरिक लय और विलय) अनुभव होता है।मन और आत्मा का संबंधमन आत्मा का कार्यान्वयन करने वाला साधन है; वही ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों को प्रभावित करता है।योग और साधना में मन को शुद्ध, शांत और एकाग्र करना जरूरी है—यही साधक को आत्मानुभूति और ब्रह्म चेतना की ओर ले जाता है।यदि मन नियंत्रित हो गया, तो बुद्धि और चित्त भी साधक के नियंत्रण में रहते हैं, जिससे आत्मा की ओर यात्रा सरल हो जाती है।शबद साधना (शब्द योग)जप या नाम-स्मरण (मंत्र, ध्वनि या शबद) साधना का मौलिक अंग है।शुद्ध उच्चारण और नियमितता से यह भीतर कंपन पैदा करता है तथा मन को अमन ( निर्लिप्त / शान्त ) करने में सहायक होता है।जैसे-जैसे शब्द साधना गहरी होती जाती है, साधक का ध्यान भीतर जाता है और यह अंतर्ध्यान (अंतर्मुखी लय) का आरंभ है।समाधि का स्वरूपसाधना, ध्यान और गुरु कृपा से जब मन पूरी तरह अन्तर्मुख हो जाता है, विचार शांत हो जाते हैं और साधक अपनी आत्मा में लीन होता है, तो यही समाधि है।समाधि में क्रमशः ध्याता (साधक), ध्यान और ध्येय (परमात्मा) का भेद मिट जाता है—अर्थात अद्वैत अवस्था, जहाँ केवल ‘होना’ शेष है।इस अवस्था में रस, स्पर्श, रूप, शब्द, द्वैत, सुख-दुख आदि सबका अतिक्रमण हो जाता है, साधक मात्र आनंदस्वरूप अवस्था (तुरीया) में रहता है।अंतर्ध्यान की प्रक्रियाअंतर्ध्यान, शब्द-साधना और समाधि के बीच की कड़ी है जहाँ मन बाह्य चेतना छोड़कर पूरी तरह आंतरिक हो जाता है।यह अवस्था महौन्मूकता (मौन, स्तब्धता) की होती है—यहाँ सतत जप, ध्यान और गुरु-दर्शन से साधक का मन-चित्त पूरी तरह भीतर लय हो जाता है।तब सतत उपस्थिति और पूर्ण मौन का अनुभव होता है—इसे ही अंतर्ध्यान या अंतरंग समाधि कहते हैं, जहाँ बाह्य द्वैत और संकल्प- विकल्प सब विलीन हो जाते हैं।सारांशसाधना की शुरुआत मन को साधने से होती है, जप-शबद के सहयोग से आत्मा-मूलक चित्तवृत्ति जागृत की जाती है और अंततः समाधि व अंतर्ध्यान की अद्वितीय अवस्था में साधक स्वयं को तथा परमात्मा को एकरूप अनुभव करता है।योग, ध्यान, जप, गुरु की कृपा और सतत अभ्यास से ही यह अंतर्यात्रा और परमसाक्षात्कार संभव होता है

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