“तू जिसे बाहर जमीं पर ढूंढता है वह तो जमीं नहीं, तेरी आत्मा में बसा है” के अर्थ और विचार को समझने के लिए प्रमुख बात यह है कि यह कथन आंतरिक वास्तविकता की ओर संकेत करता है। यह बताता है कि जो हम ईश्वर, खुदा, कली, भगवान, या वाहे गुरु के रूप में खोजते हैं वह किसी बाहरी वस्तु या स्थान पर नहीं है, बल्कि वह हमारे भीतर ही, हमारी आत्मा या चेतना में वास करता है।इसका भेद यह है कि लोग ईश्वर को अलग-अलग नामों से पुकारते हैं—कोई उसे खुदा कहता है, कोई भगवान, कोई वाहे गुरु—पर वह एक ही सच्चाई है जो हमारी आत्मा के अंदर आत्मसात होती है। यह दृष्टिकोण गैर-द्वैतवाद या अद्वैत जैसे वेदांत और सूफी आध्यात्मिक परंपराओं में प्रमुख है, जहाँ ईश्वर और आत्मा में कोई द्वैत नहीं माना जाता, वह एक ही है।यह विचार हमें सिखाता है कि ईश्वर की खोज बाहर की नहीं, अपितु अपने अंदर की जागरूकता में करनी चाहिए। बाहरी रूप, नाम, और धार्मिक पहचानें भले ही अलग हों, परन्तु वह परम सत्य अंतरात्मा में निहित है। इसलिए सच्चा भक्त या साधक आत्मा की गहराई में जाकर उस परम तत्व का अनुभव करता है, जो सभी नामों और रूपों से परे है।इस प्रकार, यह कथन हमें आंतरिक आत्मा की ओर ध्यान केन्द्रित करने और बाहरी दिखावे या नामों के भ्रम से बचने का मार्ग दिखाता है। यह विचार संत कबीर, सूफी संतों और अद्वैत वेदांत के गुरुजनों की शिक्षाओं से साम्य रखता है, जिनका सन्देश यही है कि “ईश्वर बाहर नहीं है, वह आत्मा के भीतर है” .इसका सार यह है कि चाहे आप उसे “खुदा”, “भगवान” या “वाहे गुरु” कहें, वह एक ही परम सत्य है, जो आपकी अपनी आत्मा में बसा है और जिसे बाहरी किसी जमीं या स्थान में नहीं ढूंढा जा सकता। यही आध्यात्मिक बोध जीवन में स्थिरता, शांति और मोक्ष का आधार है।

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