अहंकार मुक्त जीवन: अध्यात्म में विनम्रता का दिव्य मार्ग

अध्यात्म में अहंकार का पतनकारी स्वरूपअध्यात्म मार्ग में अहंकार ही सबसे बड़ा बाधक है, जो साधक को भ्रम की ओर ले जाता है और आध्यात्मिक पतन का कारण बनता है। यह स्वयं को श्रेष्ठ मानने से उत्पन्न होता है, जहाँ साधक दूसरों को अज्ञानी समझने लगता है।शास्त्रीय प्रमाणभगवद्गीता अध्याय 16 श्लोक 18 में स्पष्ट कहा गया है कि अहंकार के वशीभूत व्यक्ति का निरंतर पतन होता है, जो मनुष्य से पशु स्तर तक गिर जाता है।यजुर्वेद 40.10 के अनुसार, अहंकार भ्रम उत्पन्न करता है, जो पतन का मार्ग प्रशस्त करता है। उपनिषदों में भी आध्यात्मिक अहंकार को आत्मज्ञान के मार्ग में जाल बताया गया है।लक्षण एवं परिणामदूसरों को नीची दृष्टि से देखना, अपनी उच्च ‘वाइब्रेशन’ पर घमंड करना।स्वयं को गुरु घोषित कर अनुयायी बनाने की कोशिश।भगवद्गीता के अनुसार, यह कामना-उन्माद से सुसंस्कृत अवस्था से पदच्युत करता है।अहंकार का विघटन ही सच्ची शांति और दिव्य मिलन का आधार है, जैसा स्वामी मुकुंदानंद गीता से समझाते हैं। वेदांत में मन, बुद्धि, चित्त से युक्त अहंकार को प्रकृति का अंश मानकर त्यागने पर ही आत्मा का साक्षात्कार होता है।आध्यात्मिक अहंकार से मुक्ति पाने के लिए निरंतर जिज्ञासु बने रहें, विनम्रता अपनाएँ और आत्म-निरीक्षण से अवगुणों पर काम करें। यह ज्ञान, समर्पण और प्रेम से संभव है, जो द्वैत भ्रम को समाप्त कर शुद्ध चेतना की ओर ले जाता है।मुख्य उपायविनम्रता और जिज्ञासा: जीवनभर सीखते रहें, उपलब्धियों पर शेखी न बघारें। दूसरों को अज्ञानी न समझें, खुले मन से ज्ञान ग्रहण करें।समर्पण व त्याग: सिर झुकाकर प्रार्थना करें, मृत्यु-बोध जागृत करें कि सब क्षणभंगुर है। प्रेम का दीया जलाएँ, जो अहंकार का अंधेरा मिटाता है।आत्म-निरीक्षण: अपने अंदर छिपे अंधेरे (अवगुण) को पहचानें, ईमानदारी से काम करें। ध्यान विधियों से अहंकार को ‘नौकर’ भाव में लाएँ।शास्त्रीय मार्गभगवद्गीता में अहंकार को प्रकृति का अंश मानकर साक्षी भाव अपनाएँ, जैसा अध्याय 16 में वर्णित है। वेदांतिक साधना से अहंकार लय हो जाता है, केवल “वह” रहता है। नियमित जप-ध्यान से सिद्धि-असिद्धि में सम रहें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *