मैं जानता हूं सद्गुरु ईश्वर का ही रूप होता है पर मनुष्य शरीर मे चोला धारण करने के कारण हम उसे जान नही पाते...
तरीक़त का अर्क़ है मुर्शिद से ताल्लुक़ मुर्शिद से मोहब्बत और उसपर मुक़म्मल यक़ीन। अर्क़ – ज्योति, प्रकाश मुर्शिद- सतगुरु ताल्लुक- सम्बन्ध मोहब्बत- प्रेम...
किसी भी धर्म मे मैं का प्रयोग कहि न कहि अहम को बताता है इसलिए व्यक्ति कॉम क्रोध लोभ मोह अहंकार इर्ष्या द्वेष राग...
इंसान का कल्ब़ एक लाख अस्सी हज़ार जालों से जकड़ा होता है, जिसको कोई कामिल जा़त यानि सतगुरु ही अपनी नज़रे कीमियां से जला...
आज फिर जब मैं मन के शीशे के सामने पहुचा तो हैरान रह गया शीशा बोला आ गए फिर से आ जाओ मेरा द्वार...
पिताजी का फरमाना था कक मन की कोई भी उलझन यदि हमें परेशान करती है तो उसे यदि गुरु के समक्ष नही कह पा...
मैंने पढ़ा था लेकिन जाना नहीं था अपने चिंतन अपनी उलझनों को एक बार पूरे मन से व्यक्त कर दिया जाए लिख दिया जाए...
मनुष्य भी एक सामाजिक प्राणी पशु जीव है जिसका लगभग सारा जीवन भय और लालच से नियंत्रित संचालित प्रेरित है चाहे धर्म का पालन...
बिना ज्ञान और गुरु के कुछ भी संभव नही है इसलिये जीवित ओर पूर्ण गुरु मिलना इस जीवन मे जरूरी है जो हमे ज्ञान...
कोई सदाचारी साधक सूक्ष्म ध्यान के द्वारा आंतरिक ब्रहमज्योती और ब्रह्म नाद (शब्द) को प्राप्त करता है, तब उसे आत्मज्ञान होता है साथ ही...