Vachan

वेदों में गुरु का महत्व और योगदान आध्यात्मिकता के संदर्भ में अत्यंत उच्च माना गया है। गुरु को आध्यात्मिक मार्ग का पथ-प्रदर्शक, ज्ञान का स्रोत और ईश्वर तक पहुँचने का माध्यम माना जाता है। निम्नलिखित बिंदुओं में वेदों और संबंधित शास्त्रों के आधार पर गुरु के महत्व और योगदान को समझा जा सकता है:ज्ञान का दाता: वेदों में गुरु को “अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला” (तमसो मा ज्योतिर्गमय) माना गया है। ऋग्वेद और अन्य वैदिक ग्रंथों में गुरु वह है जो शिष्य को अज्ञानता के अंधेरे से निकालकर ब्रह्मज्ञान (आत्मा और परमात्मा के ज्ञान) की ओर ले जाता है। उदाहरण के लिए, उपनिषदों में गुरु-शिष्य परंपरा का उल्लेख मिलता है, जैसे याज्ञवल्क्य और जनक या उद्दालक और श्वेतकेतु के संवाद।आध्यात्मिक मार्गदर्शक: गुरु केवल बौद्धिक ज्ञान ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुभव और साधना का मार्गदर्शन भी करता है। मुंडकोपनिषद् (1.2.12) में कहा गया है: “तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्” अर्थात् ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए शिष्य को समर्पित भाव से गुरु के पास जाना चाहिए। गुरु वह दीपक है जो शिष्य के अंतर्मन को प्रज्ज्वलित करता है।वेदों का संरक्षक और प्रचारक: वैदिक परंपरा में गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से ही वेदों का मौखिक हस्तांतरण हुआ। गुरु ने वेदों के मंत्रों, उनके अर्थ और उच्चारण को शुद्ध रूप में संरक्षित किया और अगली पीढ़ियों तक पहुँचाया। यह आध्यात्मिक और सांस्कृतिक निरंतरता का आधार रहा।आत्म-साक्षात्कार का माध्यम: गुरु शिष्य को आत्म-साक्षात्कार (स्वयं का सत्य जानने) का मार्ग दिखाता है। कठोपनिषद् में यम और नचिकेता के संवाद में गुरु की भूमिका स्पष्ट होती है, जहाँ यम नचिकेता को आत्मा और परमात्मा के तत्व को समझाते हैं। गुरु बिना आध्यात्मिक प्रगति संभव नहीं मानी जाती।गुरु का नैतिक और आध्यात्मिक प्रभाव: वेदों और उपनिषदों में गुरु को न केवल विद्या का, बल्कि नैतिकता, संयम और धर्म का आदर्श माना गया है। गुरु का जीवन स्वयं शिष्य के लिए प्रेरणा होता है। गुरु शिष्य को सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और तप जैसे मूल्यों का पालन करना सिखाता है।गुरु-शिष्य का पवित्र संबंध: गुरु-शिष्य का संबंध विश्वास, समर्पण और श्रद्धा पर आधारित होता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में गुरु को माता-पिता और ईश्वर के समान माना गया है। शिष्य को गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण और श्रद्धा रखने की शिक्षा दी जाती है, क्योंकि यही आध्यात्मिक प्रगति का आधार है।योगदान:आध्यात्मिक जागरण: गुरु शिष्य के भीतर छिपी आध्यात्मिक शक्ति को जागृत करता है और उसे आत्म-निरीक्षण की ओर प्रेरित करता है।सामाजिक और सांस्कृतिक एकता: गुरु-शिष्य परंपरा ने वैदिक ज्ञान को संरक्षित कर समाज को नैतिक और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध किया।वेदांत और योग का प्रचार: गुरु ने योग, ध्यान और वेदांत के सिद्धांतों को शिष्यों तक पहुँचाया, जो आध्यात्मिकता के मूल आधार हैं।मोक्ष का मार्ग: गुरु शिष्य को कर्म, भक्ति और ज्ञान योग के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाता हैऋग्वेद: गुरु को “ऋत्विज” या यज्ञ के संचालक के रूप में महत्व दिया गया, जो आध्यात्मिक और वैदिक कर्मकांडों का मार्गदर्शन करता है।उपनिषद्: गुरु-शिष्य संवाद, जैसे चांदोग्य उपनिषद् में उद्दालक द्वारा श्वेतकेतु को “तत्त्वमसि” (तू वही है) का उपदेश, गुरु की आध्यात्मिक भूमिका को दर्शाता है।भगवद्गीता: भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन के गुरु के रूप में आध्यात्मिक और कर्म योग का उपदेश देते हैं, जो गुरु की भूमिका का सर्वोत्तम उपयोगवेदों में गुरु को ईश्वर का प्रतिनिधि और आध्यात्मिकता का आधार माना गया है। गुरु बिना न तो वैदिक ज्ञान की प्राप्ति संभव है और न ही आध्यात्मिक उन्नति। गुरु का योगदान केवल ज्ञान-प्राप्ति तक सीमित नहीं, बल्कि वह शिष्य के जीवन को समग्र रूप से सत्य और धर्म के मार्ग पर ले जाता है। “गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु:, गुरुर्देवो महेश्वर:” (गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर हैं) यह वैदिक मंत्र गुरु के सर्वोच्च स्थान को दर्शाता है।

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विकार, जिन्हें क्लेश भी कहा जाता है, मानवीय मन की वो अशुद्धियाँ हैं जो हमें दुख और अशांति देती हैं। योग दर्शन और विभिन्न...

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अध्यआत्मिक्ता में जब गुरु शिष्य के हृदय पर अपनी ऊर्जा का पूर्ण रूप से शक्तिपात कर उसे शिष्य के रूप से तहेदिल से स्वीकार कर उसकी अध्यात्मिक उन्नति के लिए अपने सद्गुरु से प्रार्थना करता है कि इसे आप अपने काबिल बना दो सही रूप में सद्गुरु उस पर अपने शिषय के माध्यम से तववजुह दे उसके शरीर के रोम रोम में ऊर्जा पैदा कर उसे हृदय चक्र जो कि केन द्रिय बिंदु होता है वहा से उर्धगति कर सारे शरीर मे ऊर्जा का गमन शुरू कर देते है जिससे शिष्य को ऊर्जा के गमन करने का अनुभव होंने लगता है और एक मधुर ओम की ध्वनि का चलन पूरे शरीर मे महसूस होने लगता है और शिष्य इस मधुर ध्वनि से अनुभूत हो ध्यान मगन हो समाधि मि अवस्था में पहुच जाता है यहां उसे भौतिक संसार नहर नही आता अपितु वो ध्वनि जो शरीर मे गूंज रही है उसी में लय हो जाता है और धीरे धीरे मस्तष्क विचार शून्य हो जाता है यहां जब शून्य में खो जाता है तब वो शून्य में उतर ना ओर भीतरी ब्रह्मांड का अपने अंदर अनुभव करने लगता है जब उसका मन बाहरी ओर भीतर से शांत हो विचार शून्य हो कर एकाग्र हो जाता है और शून्य को विचार होते ही उसके अंदर चल रहे विचार और स्वम् के अनुभव भी शून्य में बदल जाते है और यहां गुरु शिष्य के मेल से साधक उस अवस्था मे पहुचने की तैयारी कर लेता है जिसे वीतरागी कहा है मन भौतिक संसार से ऊब जाता है और उसका मन स्थिर हो अपने गुरु में लय हो जाता है यही स्तिथि सबसे पहले हमें मोक्ष के करीब ले जाती है यही से शिषय अपने अंदर शून्यता को पूर्ण रूप से अहसास करता है और समाधि में गहन मां की गहराई में उतर जाता है जहां मैं मिट मर सिर्फ तू यानी गुरु रुपी ईश्वर रह जाता है और शिष्य का शरीर शून्य में लय हो शून्य से महाशून्य के ध्यान में समाधिस्थ हो जाता है ये मेरा अनुभव है अगर ठीक लगे तो पढ़े अन्यथा डिलीट करदे मैं जानता हु की मैं इस काबिल नही पर जो गुरु ने सिखया वह लिख देता हूं नमम

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ध्यान योग में केवल्य की स्थिति

ध्यान योग (Meditation Yoga) में आत्मा की मुक्ति साक्षीभाव व समाधि द्वारा प्राप्त होती है। अंतिम अवस्था: निर्विचार समाधि / सहज समाधिमन के समस्त...

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ध्यान से नाद तक: आत्मा की अंतःयात्रा का रहस्य

अद्यतमिक योग में महर्षि पतंजलि के द्वारा योग के आठ अंग बताये गए हैयमनियमआसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधिये आठ सीढ़िया है जो हमे अद्यतमिक योग में ऊंचाई पर...

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तत्वदर्शी संत: आत्म-ज्ञान से मोक्ष तक का दिव्य पथप्रदर्शक

तत्वदर्शी संत” एक ऐसा शब्द है जिसका अध्यात्म में बहुत गहरा और विशिष्ट अर्थ है। यह केवल एक साधारण संत या धार्मिक व्यक्ति नहीं...

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