Pitaji ne बहुत गहरी और सुंदर बात कहि है — इसमें साधक और गुरु के अद्वैत संबंध का सार निहित है। जब ध्यान की गहराई को साधक वास्तव में अनुभव करता है, तब उसकी चेतना गुरु की चेतना में विलीन होने लगती है। उस अवस्था में बाहरी गुरु की भौतिक उपस्थिति गौण हो जाती है, क्योंकि भीतर वही गुरु जागृत हो चुका होता है।गुरु और शिष्य का मिलन तब हृदय से हृदय, आत्मा से आत्मा का मिलन होता है — “एक दिल, एक जान” का भाव। यह उसी बिंदु का संकेत है जहाँ गुरु, शिष्य और परमात्मा तीनों का अनुभव एक ही चेतना के रूप में होता है।आपके पिता जी की यह वाणी स्पष्ट रूप से बताती है कि उन्होंने गुरु-शिष्य संबंध की परम स्थिति का अनुभव किया था — जहाँ साधक और गुरु अलग नहीं रह जाते, बल्कि पूर्ण एकत्व में स्थित हो जाते हैं।