December 13, 2025 मेरे पिताजी का अपने शिष्यों को कहा करते थे अध्यायातम में “मर जाओ इससे पहले कि मौत तुम्हें मार दे”। यह अहंकार त्यागकर विनम्र जीवन जीने की शिक्षा देती है। आध्यात्मिक महत्वयह सूफी संतों की वाणी से प्रेरित है, जो इंसान को जीते जी नश्वरता का बोध कराकर आत्म-समर्पण सिखाती है। भक्ति और योग परंपराओं में भी समान भाव मिलता है, जहाँ अहंकार का मरण ही मुक्ति का द्वार है। व्यावहारिक उपयोगयह कहावत जीवन में घमंड छोड़ने, सादगी अपनाने की याद दिलाती है। आधुनिक संदर्भों में ध्यान और ध्यानाभ्यास के लिए प्रेरणा देती है, ताकि मृत्यु से पूर्व ही आंतरिक शांति प्राप्त हो। यह सूफी वचन जीते जी अहंकार का त्याग कर ईश्वर में लीन होने की शिक्षा देता है। योग और भक्ति में इसे ‘अहं-मरण’ कहा जाता है, नश्वरता बोध से मुक्ति प्राप्ति। व्यावहारिक महत्वदैनिक जीवन में विनम्रता और सादगी अपनाने की प्रेरणा। ध्यान में उपयोग से आंतरिक शांति मिलती है। Read More
December 13, 2025 सूफी फकीरों मो जिये जी मरने को सुंम बुक उम अध्यायातम में ध्यान में आंखे मुह ओर कान बाद कर अंदुरुनी आवज नाद के अनुभव की अवस्था को कहा है ये फकीरी, सुनमन, बुकमन और उमिअन सूफी परंपरा के महत्वपूर्ण आध्यात्मिक गुण हैं जो आध्यात्मिक जीवन को समर्पणपूर्ण और शुद्ध बनाते हैं। ये अवधारणाएँ हृदय की शुद्धि, मन की एकाग्रता और ईश्वरीय प्रेम पर आधारित हैं, जो योग और भक्ति मार्ग में भी समान रूप से लागू होती हैं। फकीरी का महत्वफकीरी आध्यात्मिक जीवन में वैराग्य और सर्वस्व-स्वीकृति का प्रतीक है, जहाँ साधक ईश्वर द्वारा दिए गए हर हाल को पूर्ण रूप से स्वीकार करता है। यह दु:ख सहन करने का नाम नहीं, बल्कि संसार के बंधनों से मुक्ति पाने का मार्ग है, जो कुंडलिनी जागरण और चक्र शुद्धि में सहायक होता है। फकीर बनना मन को अनासक्त रखता है, जिससे अनहद नाद की अनुभूति संभव हो पाती है। सुनमन और बुकमन की भूमिकासुनमन (शुद्ध मन) आध्यात्मिक साधना का आधार है, जो विचारों को पवित्र रखकर ध्यान की गहराई प्रदान करता है। बुकमन (खाली मन) विकारों से मुक्त अवस्था है, जहाँ मन बाहरी मोह से विरक्त हो जाता है, जैसे कबीर के दोहे में वर्णित भक्ति बिना मुक्ति न मिलने का सिद्धांत। ये दोनों गुण गुरु-शिष्य परंपरा में समाधि की ओर ले जाते हैं। उमिअन का आध्यात्मिक स्वरूपउमिअन (उम्मीदनाकी या आशावादी मन) जीवन की कठिनाइयों में भी ईश्वरीय कृपा पर विश्वास रखता है, जो भगवद्गीता के कर्मयोग से प्रेरित है। यह गुण आध्यात्मिक जीवन को सकारात्मक बनाए रखता है, संकटों में धैर्य प्रदान करता है और सूफी-संत परंपरा में प्रेम भक्ति को मजबूत करता है।फकीरी आध्यात्मिक साधना की वह अवस्था है जो वैराग्य और संतोष से आत्मसंयम को मजबूत बनाती है तथा मन को एकाग्र कर ध्यान की गहराई प्रदान करती है।आत्मसंयम में वृद्धिफकीरी इंद्रियों पर नियंत्रण सिखाती है, जिससे लोभ-मोह से दूरी बनती है और मन विकारों से मुक्त हो जाता है। यह नियमित अभ्यास से इच्छाशक्ति को दृढ़ करती है, जैसे सूफी परंपरा में फकीर बिना विचलित हुए साधना करते हैं। पंतजलि योगसूत्र के यम-नियम से प्रेरित होकर फकीरी तपस्या आत्मसंयम की नींव रखती है। ध्यान में सहायताफकीरी मन को शांत कर बाहरी distractions से विरक्त करती है, जिससे श्वास-प्रेक्षा और धारणा आसान हो जाती है। यह सकारात्मक सोच और धैर्य विकसित कर ध्यान के समय को लंबा करती है, अनहद नाद अनुभव के लिए आवश्यक एकाग्रता प्रदान करती है। भगवद्गीता के ध्यानयोग में वर्णित स्थिरप्रज्ञ अवस्था फकीरी से ही प्राप्त होती है।समग्र प्रक्रियाफकीरी से कुंडलिनी जागरण सहज होता है, चक्र शुद्धि में सहायक बन आत्मसंयम और ध्यान को परस्पर मजबूत करती है, गुरु-शिष्य मार्ग में उच्च समाधि की ओर ले जाती है।फकीरी से प्राप्त मानसिक स्थिरता पर सीधे वैज्ञानिक अध्ययन सीमित हैं, क्योंकि फकीरी मुख्यतः सूफी और योगिक परंपरा का आध्यात्मिक गुण है, लेकिन इससे जुड़े वैराग्य, ध्यान और mindfulness के समकक्ष अभ्यासों पर व्यापक शोध उपलब्ध हैं।न्यूरोसाइंस प्रमाणध्यान और वैराग्य-आधारित प्रथाओं से prefrontal cortex मजबूत होता है, जो भावनात्मक नियंत्रण और निर्णय लेने को स्थिर बनाता है, जैसा कि Harvard के अध्ययनों में p300 brainwave गतिविधि में वृद्धि दिखाई गई। फकीरी जैसी detachment तनाव हार्मोन cortisol को कम करती है, amygdala की अतिसक्रियता घटाती है, जिससे चिंता और अवसाद में 20-30% कमी आती है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनCognitive Behavioral Therapy में mindfulness-आधारित वैराग्य से लचीलापन बढ़ता है, जैसा कि meta-analysis में पाया गया कि नियमित अभ्यास से PTSD लक्षण 40% तक घटते हैं। फकीरी का संतोष भाव neuroticism को कम करता है, Big Five personality traits पर longitudinal studies से सिद्ध। योगिक समर्थनपतंजलि योगसूत्र से प्रेरित फकीरी pranayama और ध्यान से vagus nerve टोन सुधारती है, HRV बढ़ाकर मानसिक स्थिरता प्रदान करती है, NCBI अध्ययनों में हृदय गति variability में 25% वृद्धि दर्ज। कुंडलिनी योग में इससे चक्र संतुलन होता है Read More
December 13, 2025 जीवात्मा के भीतर “अज़म” शब्द गुप्त रूप से विद्यमान है, अर्थात् वहाँ वह स्वरूप में छिपा हुआ है। लेकिन कमील दरवेश (पूर्ण संत या सूफी फकीर) के हृदय में यह अज़म प्रगट हो जाता है, चमकदार और स्पष्ट। इंसान को इसी अज़म की तलाश है, जो उसके भीतर ही बसता है—बाहर भटकने की क्या आवश्यकता? अपना ध्यान उसी अज़म से जोड़ लो, तो सारी खोज समाप्त हो जाएगी।सूफी दृष्टि में अज़म का रहस्यसूफी परंपरा में “अज़म” अल्लाह का एक गुप्त नाम है, जो हृदय के गहन कोने में निवास करता है। यह वह सर्वोच्च सत्ता है जो जीवात्मा को परमात्मा से जोड़ती है।गुप्त अवस्था: साधारण मनुष्य में अज़म “शब्द” के रूप में गुप्त रहता है, जैसे बीज भूमि में दबा होता है। कुरान की आयतों (जैसे सूरह अल-बकरा 2:1 “अलिफ़ लाम़ मीम़”) में ऐसे गुप्त अक्षरों का संकेत मिलता है, जिन्हें सूफी हृदय की कुंजी मानते हैं।प्रगट अवस्था: कमील दरवेश (जैसे रूमी, रबिया या बुलleh शाह जैसे सूफी संत) में यह प्रगट हो जाता है। ध्यान, जिक्र और फना (स्वयं का विलय) से यह ज्योति बनकर चमकता है।तलाश का मार्ग: बाहर मस्जिदों-मंदिरों में न भटको। हज़रत शम्स तबरेज़ कहते हैं, “तेरा रब तेरे हृदय में है।” मुराक़बा (ध्यान) करो, लाहूत (दिव्य नाम) का जिक्र करो—अज़म अपने आप प्रगट होगा।यह भक्ति और सूफी मार्ग का सार है: अंदर की खोज ही बाहर की मुक्ति है। गीता में भी श्रीकृष्ण कहते हैं, “मां तु वेष्ट्सरति सर्वं” (मैं सबमें व्याप्त हूँ)। Read More
December 13, 2025 भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अवयव (इंद्रियों और शरीर के अंगों) को समझने के लिए आत्मा और शरीर के भेद का उपदेश देते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि शरीर नश्वर है, जबकि आत्मा अमर। शरीर और आत्मा का भेदकृष्ण कहते हैं कि अवयव (इंद्रियां) जैसे आंख, कान आदि शरीर के हिस्से हैं, जो जन्म-मृत्यु के चक्र में बंधे रहते हैं। आत्मा इनसे परे है, न कटती है, न जलती है। गीता के द्वितीय अध्याय में वे उदाहरण देते हैं कि जैसे व्यक्ति वस्त्र बदलता है, वैसे ही आत्मा शरीर त्यागती है। इंद्रियों पर नियंत्रणअवयवों को वश में करने का ज्ञान गीता के तृतीय और पंचम अध्यायों में है, जहां निष्काम कर्मयोग सिखाया जाता है। इंद्रियां विषयों की ओर भटकती हैं, अतः बुद्धि द्वारा उन्हें संयमित करें। इससे मोह त्याग हो जाता है। व्यावहारिक उपदेशकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि अवयवों का मोह छोड़कर कर्तव्य पथ पर चलें। जैसे रथ और कवच शरीर से अलग हैं, वैसे आत्मा अवयवों से स्वतंत्र है। यह ज्ञान युद्धभूमि में ही दिया गया।भगवद्गीता में अवयव (शरीर के अंगों और इंद्रियों) तथा आत्मा के भेद का उपदेश मुख्य रूप से द्वितीय अध्याय (सांख्य योग) में वर्णित है। प्रमुख श्लोकअध्याय 2 के श्लोक 12 से 30 तक श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता समझाते हैं। विशेषकर श्लोक 22: “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥” अर्थात् जैसे पुराने वस्त्र त्यागकर नए धारण करते हैं, वैसे जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़ नया ग्रहण करता है। अवयव शरीर के नाशवान भाग हैं, आत्मा इनसे परे है। आत्मा के गुणश्लोक 23-25 में कहा गया कि आत्मा अछेद्या, अदाह्या, अक्लेद्या, अशोष्या है; न जन्म लेती, न मरती। श्लोक 20: “न जायते म्रियते वा कदाचिन्…” यह भेद समझने से मोह नष्ट होता है।भगवद्गीता अध्याय 2 के श्लोक 20, 22 और 23 में आत्मा की अमरता और शरीर के नश्वर स्वरूप का विस्तृत वर्णन है। श्लोक 20 का अर्थश्लोक: “न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥”यह आत्मा कभी जन्म नहीं लेती, न मरती है। न तो पहले उत्पन्न होकर फिर होगी, न पुनः उत्पन्न होगी। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और अनादि है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होती। यह छह विकारों (जन्म, अस्तित्व, परिवर्तन आदि) से परे है। श्लोक 22 का अर्थश्लोक: “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥”जैसे मनुष्य पुराने फटे वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने व्यर्थ शरीरों को छोड़कर नए भौतिक शरीर ग्रहण करती है। यह देहधारी आत्मा के शरीर-परिवर्तन का उदाहरण है। श्लोक 23 का अर्थश्लोक: “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥”इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, वायु सुखा नहीं सकती। यह अविनाशी है, क्योंकि यह भौतिक तत्वों से परे है।भगवद्गीता अध्याय 2 के श्लोक 23 में आत्मा और प्राण का सीधा संबंध नहीं बताया गया है। यह श्लोक मुख्यतः आत्मा की अविनाशिता पर केंद्रित है, जहां स्पष्ट किया गया कि आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि नहीं जला सकती, जल नहीं भिगो सकता और वायु (मारुतः) नहीं सुखा सकती। श्लोक का मुख्य अर्थश्लोक: “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥”यहाँ “मारुतः” वायु को संदर्भित करता है, जो प्राण (जीवन शक्ति) का एक रूप है, किंतु श्लोक का उद्देश्य आत्मा को पंच महाभूतों (भौतिक तत्वों) से परे सिद्ध करना है। प्राण शरीर की गतिविधियों का संचालक है, पर आत्मा इन सबकी आधारशक्ति है, न कि प्राण का हिस्सा। प्राण नश्वर है, आत्मा अमर। संबंध की व्याख्यागीता में प्राण को अवयवों (इंद्रियों) से जुड़ा माना गया है, जबकि श्लोक 23-24 आत्मा को इनसे अलग बताते हैं। कुछ टीकाकार प्राण को सूक्ष्म शरीर का भाग मानते हैं, जो आत्मा को धारण करता है, किंतु श्लोक स्वयं प्राण का उल्लेख आत्मा के संदर्भ में नहीं करता। संबंध अप्रत्यक्ष है: प्राण शरीर चलाता है, आत्मा चेतना प्रदान करती है। Read More
December 12, 2025 गीता के अनुसार कर्तव्य कर्म और मोक्ष का संबंध निष्काम भाव से है, जहां स्वधर्मानुसार किए गए कर्म फल की आसक्ति त्यागकर बंधनमुक्ति का साधन बनते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि कर्तव्य पालन से ही कर्मयोगी संसार के बंधनों से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त करता है।निष्काम कर्मयोगकर्तव्य कर्म को ईश्वर को समर्पित कर निष्काम भाव से करने पर यह यज्ञ बन जाता है, जो मोक्ष प्रदान करता है। गीता में कहा गया है कि फल की इच्छा से कर्म बंधन देता है, लेकिन अनासक्ति से मुक्ति मिलती है। यह कर्म के प्रति त्याग नहीं, बल्कि आसक्ति का त्याग सिखाता है।प्रमुख श्लोक संदर्भअध्याय 3, श्लोक 9: “इस संसार में कर्मों के सिवा अन्य कोई मार्ग नहीं है।” कर्तव्य से ही प्रकृति के बंधन से मुक्ति ।अध्याय 4, श्लोक 16: कर्म तत्त्व जानकर अशुभ से मुक्ति ।अध्याय 18: यज्ञ, दान, तप और कर्तव्य कभी न त्यागें, ये शुद्धिकारक हैं ।मोक्ष प्राप्ति का मार्गकर्तव्य कर्म धर्म, अर्थ, काम के बाद अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष की ओर ले जाता है, जहां आत्मा कर्मफल से विमुक्त हो जाती है । भक्ति और ज्ञान के साथ संयुक्त यह कर्म संसार चक्र तोड़ता है।धर्म जीवन को संतुलित रखने वाली शक्ति है, जिसमें नीति, नियम और आदर्श बंधे होते हैं, जबकि अधर्म मन की मर्जी से होने वाले कर्म या विकर्म पर आधारित है, बिना किसी बंधन के।धर्म का स्वरूपधर्म वह धारण करने वाली शक्ति है जो व्यक्ति, समाज और सृष्टि को स्थिरता प्रदान करती है । इसमें नैतिकता, संयम और करुणा जैसे मूल्य निहित होते हैं, जो आचरण को निर्देशित करते हैं। महाभारत में कहा गया है कि धर्म प्रजा को धारण करता है और सत्य से युक्त होता है ।अधर्म की प्रकृतिअधर्म में कोई नियम या आदर्श नहीं होता, बल्कि सब मनमर्जी के अनुसार कर्म या विकर्म होते हैं। भगवद्गीता में कर्म, विकर्म और अकर्म की गहन गति बताई गई है, जहां धर्म-विरुद्ध कार्य कुकर्म कहलाते हैं । यह व्यक्ति को अनैतिकता की ओर ले जाता है, बिना किसी उत्तरदायित्व के।कर्म-धर्म संबंधसच्चा कर्म वही है जो धर्म से युक्त हो; धर्म-विरुद्ध कर्म अधर्म या कुकर्म बन जाता है । गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जनकल्याण से युक्त कर्म ही धर्म है । इस समन्वय से जीवन को दिशा और अर्थ मिलता है।गीता में कर्तव्य कर्म का अर्थ स्वधर्मानुसार निर्धारित शास्त्रोक्त कार्य है, जो निष्काम भाव से किया जाए तो मोक्ष का साधन बनता है। यह अर्जुन को दिए गए उपदेशों का मूल है, जहां श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म न करने से प्रकृति के बंधन से मुक्ति नहीं मिलती।कर्तव्य कर्म की परिभाषाकर्तव्य कर्म वह है जो व्यक्ति के वर्ण और आश्रम के अनुसार शास्त्रों द्वारा नियुक्त किया गया हो, जैसे क्षत्रिय का युद्ध करना । गीता के तीसरे अध्याय में कहा गया है कि निष्काम कर्मयोग ही श्रेष्ठ है, फल की इच्छा से बंधन उत्पन्न होता है। यह जीवन को संतुलित रखता है और आत्मा को शुद्ध करता है।गीता के प्रमुख श्लोकअध्याय 3, श्लोक 8: “नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकरमभ्य। शरीरयात्रापि च ते न प्रतिष्ठति अकर्मणः।” अर्थात् कर्तव्य कर्म करो, अकर्म से शरीर भी नहीं चलता ।अध्याय 18, श्लोक 47: स्वधर्मे निष्पादन ही श्रेयस्कर, परधर्म ग्रहण से हानि ।ये श्लोक बताते हैं कि कर्तव्य पालन से ही कल्याण होता है।महत्व और फलकर्तव्य कर्म से मनुष्य अपने स्थान पर स्थित रहकर ईश्वर प्राप्ति करता है, बिना फल की आसक्ति के । यह विकर्म से बचाता है और समाज को धारण करता है। निष्काम भाव से किया गया कर्तव्य ही सच्चा कर्मयोग है। Read More
December 11, 2025 शरीर, मन और आत्मा भारतीय दर्शन में अलग-अलग स्तरों पर अस्तित्व रखते हैं, जहाँ आत्मा को शाश्वत और स्वतंत्र माना जाता है जबकि शरीर व मन क्षणभंगुर हैं। वेदांत और उपनिषदों के अनुसार आत्मा न तो शरीर में निवास करती है और न ही उसके परिवर्तनों से प्रभावित होती है। वेदांत दर्शन में भेदवेदांत में आत्मा को सच्चिदानंद स्वरूप कहा गया है, जो अनंत, नित्य और जन्म-मृत्यु से परे है। शरीर स्थूल शरीर (स्थूल शरीरा) है जो भोजन पर निर्भर रहता है, मन सूक्ष्म शरीर (लिंग शरीरा) का भाग है जिसमें चित्त, बुद्धि और अहंकार शामिल हैं। आत्मा इन तीनों शरीरों—स्थूल, सूक्ष्म और कारण—से परे साक्षी मात्र है। भगवद्गीता का विवेचनभगवद्गीता (अध्याय 2, श्लोक 20) स्पष्ट करती है कि आत्मा नाशरहित है, जबकि शरीर-मन परिवर्तनशील हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसे वस्त्र बदलते हैं, वैसे ही जीवात्मा शरीर त्यागती है, पर स्वयं अजर-अमर रहती है। यह भेद समझने से अहंकार का तादात्म्य टूटता है और जीव ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। योग और आचार्य दृष्टियोग दर्शन में पतंजलि चित्तवृत्ति निरोध को योग कहते हैं, जो शरीर-मन को शुद्ध कर आत्मा तक ले जाता है। आचार्य प्रशांत जैसे विद्वान जोर देते हैं कि आत्मा का शरीर से कोई संबंध नहीं, यह निरंजन चेतना है। कुंडलिनी योग में भी चक्र जागरण से इनका भेद अनुभव होता है।उपनिषदों में आत्मा को शुद्ध चेतना, सच्चिदानंद स्वरूप और ब्रह्म का अभिन्न अंश बताया गया है। यह नित्य, अविनाशी और अनंत है, जो शरीर, मन या इंद्रियों से परे साक्षी भाव में स्थित रहती है। आत्मा-ब्रह्म अभेदउपनिषद जैसे बृहदारण्यक और छांदोग्य में महावाक्य “अहं ब्रह्मास्मि” और “तत्त्वमसि” से स्पष्ट है कि आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं। तैत्तिरीय उपनिषद में इसे “सत्-चित्-आनंद” कहा गया, जो निर्गुण परब्रह्म का स्वरूप धारण करता है। माण्डूक्य उपनिषद तीन अवस्थाओं—जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति—में कार्य करती हुई आत्मा को चतुर्थ तुर्या के रूप में वर्णित करता है। स्वरूप के लक्षणआत्मा को अजन्मा, अमर, न जलने वाला और न सूखने वाला कहा गया, जैसा कठोपनिषद में यम द्वारा नचिकेता को समझाया। यह सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी साक्षी है, जो कर्मफलों का भोक्ता जीवात्मा से भिन्न परमात्मा रूप में कार्य करती है। आत्मोपनिषद में बाह्यात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा के तीन प्रकार बताए गए हैं। साक्षात्कार का मार्गउपनिषद ज्ञानयोग, श्रवण-मनन-निदिध्यासन से आत्मसाक्षात्कार की शिक्षा देते हैं, जिसमें शरीर-मन का तादात्म्य टूटता है। यह अद्वैत सिद्धांत पर आधारित है, जहाँ आत्मा संसार के नाम-रूप से परे शुद्ध चेतना है। Read More