हम शिष्य यूँ तो दिन भर में सैकड़ों ग़लतियाँ करते हैं पर कुछ ग़लतियाँ ऐसी होती है जो हमको गुरु की नज़रों में गिरा...
आध्यात्मिक भाषा में, काम के लिए काम करने की प्रतिबद्धता, अर्थात्, सभी के ऊपर अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता देना निष्काम कर्म के रूप में...
गुरु की नजर में शिष्य योग्य है तो उसके लिए गुरु का दर्जा ईश्वर तुल्य है और गुरु की मेहर से वो तप कर...
गुरु के पास बहुत कम शिष्य ऐसे आते है जिनमे गुरु के प्रति निष्ठा समर्पण ओर समर्पित ओर स्वम् के मोक्ष पाने की कामना ...
सदगुरुदेव कहते है के ज्यादा तर लोग गुरु से जुड़ते है और अपने जीवन की परेशानियों का समाधान होने के बाद उन्हे भूल जाते...
दूसरे साधकोंमें तो कमी भी रह सकती है और अन्तसमयमें अन्यचिन्तन, मूर्च्छा आदि किसी कारणसे साधनसे विचलित होकर वे योगभ्रष्ट भी हो सकते हैं,...
मैं जानता हूं सद्गुरु ईश्वर का ही रूप होता है पर मनुष्य शरीर मे चोला धारण करने के कारण हम उसे जान नही पाते...
तरीक़त का अर्क़ है मुर्शिद से ताल्लुक़ मुर्शिद से मोहब्बत और उसपर मुक़म्मल यक़ीन। अर्क़ – ज्योति, प्रकाश मुर्शिद- सतगुरु ताल्लुक- सम्बन्ध मोहब्बत- प्रेम...
किसी भी धर्म मे मैं का प्रयोग कहि न कहि अहम को बताता है इसलिए व्यक्ति कॉम क्रोध लोभ मोह अहंकार इर्ष्या द्वेष राग...
इंसान का कल्ब़ एक लाख अस्सी हज़ार जालों से जकड़ा होता है, जिसको कोई कामिल जा़त यानि सतगुरु ही अपनी नज़रे कीमियां से जला...