Guru Ji

गुरु: अज्ञान से ज्ञान की ओरगुरु शब्द संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है: ‘गु’ (अंधकार) और ‘रु’ (प्रकाश)। अर्थात, गुरु वह है जो अज्ञान के अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश प्रदान करता है। भारतीय संस्कृति में गुरु को ‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश’ के समान माना गया है:

**गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।गुरु साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥ **इस मंत्र में गुरु को साक्षात् परम ब्रह्म कहा गया है, जो शिष्य...

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“जब जन्म और मरण दोनों ही अनिश्चित हैं…”जीवन और मृत्यु पर किसी का पूर्ण नियंत्रण नहीं है, और ये दोनों ही रहस्य से भरे हुए हैं। कोई नहीं जानता कि हम कब जन्म लेंगे और कब मृत्यु होगी। यह अनिश्चितता ही जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है तो फिर आत्मिक शांति और ईश्वर में विश्वास क्यो ओर किसलिए जब जीवन और मौत दोनो का कोई पता नही हमको बस जो जीवन मिला है उसमें मौत शांति से हो और कोई कस्ट न हो इसलिए मानसिक धोखा में रहते हैकुछ लोग मानते हैं कि ईश्वर और आत्मिक विश्वास एक मानसिक सहारा मानते है इसके लकए पटें भक्ति ज्ञान और ध्यान की साधना में आने में को।लगते है और मॉनसिक ओर आत्मिक शांति के लियर ये रास्ता चुनते है और अपने आचरण को सात्विक बना लेते है और सुख दुख को भूल एक संयमित दशा में जीवन जीते है यह ऐसी भावना जो अराजकता में भी व्यवस्था और अर्थ देने का काम करती है। यह जरूरी नहीं कि यह धोखा हो; यह एक तरह का मानसिक संतुलन हो सकता है, जिससे व्यक्ति जीवन की कठिनाइयों का सामना कर पाता है।।अनुभवजन्य विश्वास:।कई लोगों के जीवन में ऐसे अनुभव होते हैं जो उन्हें यह महसूस कराते हैं कि कोई उच्च शक्ति है, चाहे वो “ईश्वर”, “ब्रह्म”, “ऊर्जा” या कुछ और हो। यह अनुभव व्यक्तिपरक होता है — कोई इसे सत्य मानता है, कोई भ्रम। पर ये सत्य है कि किसी संत की शरण मे जंस्कार हम आत्मिक शांति को।महसूस करते है और हमे उसके ज्ञान से मिलती है ये एक विशेष महत्व रखती है जो मस्तिष्क को।ऊर्जावान कर हमें जीवन सात्विक जीने की।प्रेरणा देती है इसके अलावा धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता हमारे समाज और संस्कृति में आध्यात्मिकता बचपन से सिखाई जाती है। इसका उद्देश्य यह भी होता है कि व्यक्ति नैतिक और संयमित जीवन जिए, चाहे वो ईश्वर को मानता हो या न हो।यदि से हमे एक अलग अनुभूति मिलती है जो हमे आध्यात्मिकता की ओर ले जाती हैं इसके लिए हम आत्मिक शांति को तलाश्य करते है यह हमारे लिए एक आवश्यकता या विकल्प होती हचाहे कोई ईश्वर को माने या न माने, आत्मिक शांति एक ऐसी स्थिति है जिसकी हर व्यक्ति को ज़रूरत है — जैसे कि मन की स्थिरता, संतुलन, और जीवन के अर्थ की अनुभूति। इसे कोई ध्यान, कला, प्रकृति, प्रेम, सेवा या ज्ञान के माध्यम से भी प्राप्त कर सकता है। मेरी सोच कर अनुसार मैं ये सोचता हूं कि

आत्मिक विश्वास या ईश्वर में भरोसा जरूरी नहीं कि किसी धोखे की उपज हो। यह चेतना की एक दिशा भी हो सकता है —...

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शिवजी की जटाओं में गंगा को समाहित करने की कथा केवल पौराणिक गाथा नहीं है, बल्कि शिवजी की आध्यात्मिक साधना की ऊंचाइयों को दर्शाता है कि वे कितने बड़े साधक ओर आध्यात्मिक योगी थे और उनकी पहुच अध्यात्म में सर्वोत्तम स्तिथि पर थी मेरी सोच के अनुसार बल्कि इसमें गहरा ज्ञान छुपा हुआ है जो एक आध्यात्मिक योगी ही इसे जान सकता है साधरण मनुष्य की बात नही इस कोसमझने के लिए हमें शिव, गंगा, जटा, और भागीरथ के प्रयत्न को प्रतीकात्मक आध्यात्मिक रूप से देखना होगा।-गंगा: चेतना की सर्वोच्च धारा गंगा कोई सामान्य नदी नहीं, बल्कि उसे देवत्व प्राप्त है। वह दिव्य चेतना (Divine Consciousness) या ब्रह्मज्ञान का प्रतीक है।गंगा का स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरना दर्शाता है कि दिव्य ज्ञान को धरती या सांसारिक जीवन में उतारना कठिन और खतरनाक होता है, यदि वह बिना संयम और साधना के आता है।जिस प्रकार गंगा का वेग इतना तीव्र था कि वह पृथ्वी को ध्वस्त कर सकती थी, उसी तरह बिना तैयारी के मिला ज्ञान अहंकार, भ्रम और विनाश का कारण बन सकता है। शिव: पूर्ण योगी और ब्रह्म से एकात्म शिव को ‘महायोगी’ कहा गया है। वह ध्यानमग्न, निर्लिप्त और निर्विकारी हैं शिव की जटाएं प्रतीक हैं स्थिर, संयमित, और साधित मन की। जब चेतना की धारा (गंगा) इतनी तीव्र हो, तो उसे संभालने के लिए वैसा ही मन चाहिए, जो शिव की तरह पूर्ण रूप से निःस्पंद और जाग्रत हो।शिव का गंगा को जटाओं में रोकना बताता है कि ज्ञान और चेतना को केवल वही व्यक्ति संभाल सकता है जो ध्यान और आत्म-नियंत्रण में सिद्ध हो।. जटा: साधना और मानसिक नियंत्रण जटाएं आम तौर पर बढ़े हुए बालों का प्रतीक हैं, लेकिन आध्यात्मिक अर्थ में यह नियंत्रित ऊर्जा (Controlled Energy) और ध्यान की गहराई का संकेत देती हैं।

शिव की जटाएं यह दर्शाती हैं कि उन्होंने अपनी जीवन ऊर्जा को भीतर की ओर मोड़ा है (उर्ध्वगामी ऊर्जा)।जब गंगा उनकी जटाओं में आती...

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।गुरु और शिष्य का संबंध एक पवित्र, गहरा और परिवर्तनकारी बंधन है, जो ज्ञान, मार्गदर्शन और आत्मिक विकास पर आधारित होता है। यह केवल शिक्षक और विद्यार्थी का रिश्ता नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक और भावनात्मक संनाद है, जिसमें गुरु शिष्य को जीवन के लक्ष्यों, मूल्यों और सत्य की ओर ले जाता है।गुरु-शिष्य संबंध की प्रमुख विशेषताएँ:ज्ञान का आदान-प्रदान: गुरु अपने अनुभव, बुद्धि और ज्ञान को शिष्य के साथ साझा करता है, उसे अज्ञानता के अंधकार से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाता है।उदाहरण: भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को गुरु के रूप में जीवन, कर्तव्य और धर्म का ज्ञान देते हैं।विश्वास और समर्पण: शिष्य का गुरु के प्रति पूर्ण विश्वास और समर्पण इस संबंध का आधार है। शिष्य गुरु के मार्गदर्शन को बिना संदेह स्वीकार करता है।अनुशासन और मार्गदर्शन: गुरु शिष्य को अनुशासित जीवन जीने की प्रेरणा देता है, उसे लक्ष्य के प्रति एकाग्र और सावधान रखता है, जैसा कि आपने अर्जुन का उदाहरण दिया।आध्यात्मिक और नैतिक विकास: गुरु न केवल शैक्षिक या व्यावहारिक ज्ञान देता है, बल्कि शिष्य के चरित्र, नैतिकता और आंतरिक शक्ति को भी निखारता है।पारस्परिक सम्मान: यह संबंध द्विपक्षीय सम्मान पर टिका होता है। गुरु शिष्य की जिज्ञासा और क्षमता का सम्मान करता है, जबकि शिष्य गुरु की विद्या और मार्गदर्शन को श्रद्धा देता है।उदाहरण:द्रोणाचार्य और अर्जुन: महाभारत में द्रोणाचार्य ने अर्जुन को न केवल धनुर्विद्या सिखाई, बल्कि उसे कर्तव्यनिष्ठा और एकाग्रता का पाठ भी पढ़ाया। अर्जुन का गुरु के प्रति समर्पण और अनुशासन उसे महान योद्धा बनाता है।स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस: स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण के मार्गदर्शन में आध्यात्मिक और दार्शनिक गहराई प्राप्त की, जिसने उन्हें विश्व स्तर पर भारतीय संस्कृति का प्रचारक बना पिताजी साहब का कहना था कि जो गुरु के लिए अपनी जान देने की भी परवाह न करता हो उसके लिए गुरु सव्व्म को कुर्बान कर देता है इसीलिए ।गुरु द्वारा बनाया गया शिष्य अर्जुन की तरह अपने लक्ष्य के प्रति पूर्णतः समर्पित और सावधान रहना चाहिए ओर गुरु का मार्गदर्शन उसे व्यर्थ की बातों से दूर रखता है, जिससे उसका समय और ऊर्जा केवल लक्ष्य प्राप्ति में लगती है। यह एकाग्रता और अनुशासन ही उसे सफलता की ओर ले जाता है।

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कर्म, धर्म और गृहस्थ जीवन का हिंदू दर्शन में विशेष महत्व है, क्योंकि ये तीनों एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हैं और जीवन के उद्देश्य (पुतवरुषार्थ: धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) को प्राप्त करने में सहायक हैं।ये बात जब भी मन मे आती है तो लगता है जो गृहस्थ रह कर तपश्या मनुष्य करता है वह अलग ही होती है और कर्म करते हुवे अपने को गृहस्थ धर्म का अपनी योग्यता के अनुसार निभाना ये मनुष्य के लिए विशेष महत्व रखता है मांनव जनम लेता है और परिवार में उसका पालन पोषण होता है बड़ा होकर चाहे पुरुष हो या स्त्री शिक्षस लेते है और शादी के बाद अनजान परिवार में शादी कर पति पत्नी बन के जो ग्रहड्थ कि कर्मो के साथ जीवन जीते है ये अनूठा बन्धन ही हमे कर्म से बांध कर प्रेम और कर्म में बढ़ता है और ईश वॉर की तरह से गृहस्थ में पति पत्नी बन माता पिता और परिवार का अपने बल पर संचालित करता है और पति पत्नी डोंयो का अटूट साहस ही इसमें योगदान देता है पत्नी अपना निजी घर माता पिता को छोड़ एक अलग परिवार से जुड़ जाती है और मर्त्य तक उसी परिवार को अपना मां अपना धर्म का पालन करती है इससे बड़ा गृहस्थ में त्याग नही हो सकता और फिर अपने परिवार में स्वम् के बच्चों को वो संस्कार देती है जिससे परिवार फल फूलता है और मसान सम्मान करना सीखता है ओर गृहस्थ धर्म चार आश्रम में से एक है जबकि हिंदू धर्म में चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) में से एक है और इसे जीवन का आधार माना जाता है। इसकव इस तरह से समझ सकते है इसमे पहला कर्म और धर्म का महत्व दिया गया है और इसमें भी कर्म पहले हैहिंदू दर्शन में कर्म का अर्थ है कर्तव्य, कार्य और नैतिक दायित्व। यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म के अनुरूप होना चाहिए। कर्म न केवल व्यक्तिगत विकास के लिए, बल्कि समाज और विश्व के कल्याण के लिए भी महत्वपूर्ण है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” (कर्म में तेरा अधिकार है, फल में नहीं), जो यह दर्शाता है कि कर्म निष्काम भाव से करना चाहिए i इसके बाद आता है धर्म: यहां धर्म का अर्थ है नैतिकता, कर्तव्य और जीवन का सही मार्ग। यह व्यक्ति को सत्य, अहिंसा, दया, और समाज के प्रति जिम्मेदारी का पालन करने की प्रेरणा देता है। गृहस्थ जीवन में धर्म का पालन परिवार, समाज और आत्मा के प्रति कर्तव्यों को संतुलित करने में होता है पर कर्म और द्धर्म एक दूसरे के पूरक है इनमे भी ।संबंध है कर्म और धर्म एक-दूसरे के पूरक हैं। धर्म कर्म को दिशा देता है, और कर्म धर्म को साकार करता है। गृहस्थ जीवन में यह संतुलन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह वह अवस्था है जहां व्यक्ति समाज और परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाता है. गृहस्थ जीवन का विशेष महत्वगृहस्थ आश्रम को हिंदू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि:सामाजिक आधार: गृहस्थ जीवन समाज का आधार है। यह परिवार, शिक्षा, संस्कृति और धर्म को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का माध्यम है।धर्म का पालन: गृहस्थ जीवन में व्यक्ति यज्ञ, दान, सेवा और अन्य धार्मिक कृत्यों के माध्यम से धर्म का पालन करता है। यह आश्रम अन्य आश्रमों (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, संन्यास) को आर्थिक और सामाजिक रूप से समर्थन देता है।ओर : गृहस्थ जीवन में व्यक्ति धर्म, अर्थ (आर्थिक समृद्धि) और काम (इच्छाओं की पूर्ति) का संतुलन बनाए रखता है, जो अंततः मोक्ष की ओर ले जाता है ओर ।कर्तव्यों का निर्वहन करता है गृहस्थ व्यक्ति पितृऋण, देवऋण और ऋषिऋण का निर्वहन करता है। यह परिवार, समाज और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी निभाने का समय है गृहस्थ में । वह व्यक्ति है जो आत्मज्ञान, भक्ति, और परम सत्य की खोज में लीन रहता है और संतत्व का आधार धर्म की मान्यताओं से अधिक आध्यात्मिकता, निःस्वार्थता और सत्य के प्रति समर्पण पर निर्भर करता है गृहस्थ में संत: होना हमारे हिंदू धर्म में कई उदाहरण हैं जहां गृहस्थ जीवन जीने वाले व्यक्ति संत बने। जैसे, राजा जनक, जो गृहस्थ थे, लेकिन उनकी आध्यात्मिकता और कर्मयोग के कारण उन्हें “विदेही” कहा गया। इसी तरह, संत तुकाराम और मीराबाई जैसे भक्तों ने गृहस्थ जीवन में रहते हुए भक्ति और आध्यात्मिक ऊंचाइयों को प्राप्त किया।हिंदू धर्म की मान्यताओं को न मानने वाला संत: हिंदू धर्म उदार और समावेशी है। यह कर्म, भक्ति, और ज्ञान के विभिन्न मार्गों को स्वीकार करता है। यदि कोई गृहस्थ हिंदू धर्म की परंपरागत मान्यताओं (जैसे मूर्तिपूजा, कर्मकांड आदि) में विस्वास नही रखता ओर मन से नही मानता, लेकिन सत्य, प्रेम, और निःस्वार्थता के मार्ग पर चलता है, तो वह संतत्व प्राप्त कर सकता है। उदाहरण के लिए, कबीर और नानक जैसे संतों ने परंपरागत कर्मकांडों पर कम जोर दिया और भक्ति व नैतिकता को प्राथमिकता दी।आवश्यक गुण: संतत्व के लिए आवश्यक है आत्म-जागरूकता, करुणा, और परम सत्य के प्रति समर्पण। यह गुण किसी भी धर्म या मान्यता से परे हैं अब हम सोचते है कि क्या गृहस्थी कर्म छोड़कर संत बन सकता हैहिंदू दर्शन में संत बनने के लिए गृहस्थी कर्म छोड़ना आवश्यक नहीं है। हालांकि, कुछ लोग संन्यास आश्रम में प्रवेश करते हैं, लेकिन यह एकमात्र मार्ग नहीं है।गृहस्थी में संतत्व: गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी व्यक्ति निष्काम कर्म, भक्ति और ध्यान के माध्यम से संतत्व प्राप्त कर सकता है। उदाहरण के लिए, गीता में कर्मयोग और भक्तियोग का मार्ग गृहस्थों के लिए ही बताया गया है। राजा जनक और संत तुकाराम इसके जीवंत उदाहरण हैं।संन्यास और गृहस्थी का अंतर: संन्यास में व्यक्ति सांसारिक बंधनों को त्याग देता है, लेकिन गृहस्थी में व्यक्ति इन बंधनों के बीच रहकर भी आध्यात्मिकता को जी सकता है। गृहस्थी छोड़ना संतत्व का आधार नहीं है; यह मन की शुद्धता और आत्म-ज्ञान पर निर्भर करता है।आधुनिक परिप्रेक्ष्य: आज के समय में, कई लोग गृहस्थ जीवन में रहते हुए ध्यान, योग, और सेवा के माध्यम से आध्यात्मिक जीवन जीते हैं। जैसे, मेरे पिता संत राधामोहन लाल जी संत ठाकुर राम सिंहजी संत श्रीमाली व श्री भारत भूषण जी शर्मा दुर्गादासजी अनेक धार्मिक व्यक्ति जिन्हें हम जानते नही पर गृहस्थ में रह कर संत पद तक पहूचे अन्य गुरु जो हुवे वो भी हमे गृहस्थ जीवन को आध्यात्मिकता के साथ जोड़ने की प्रेरणा देते हैं। मेरी सोच के अनुसार कर्म और धर्म गृहस्थ जीवन में इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये व्यक्ति को नैतिकता, कर्तव्य और आध्यात्मिकता के साथ जीने की प्रेरणा देते हैं। गृहस्थ जीवन समाज और धर्म का आधार है, जो व्यक्ति को पुरुषार्थों की प्राप्ति में सहायता करता है। गृहस्थी में संत बनना संभव है, चाहे वह हिंदू धर्म की परंपरागत मान्यताओं को माने या न माने, बशर्ते वह सत्य, करुणा और आत्म-जागरूकता के मार्ग पर चले। गृहस्थी कर्म छोड़ना संतत्व के लिए आवश्यक नहीं है; यह मन की शुद्धता और निःस्वार्थ कर्म पर निर्भर करता है ।

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प्रेम का सूफी मार्ग: रहीम के दोहों में आध्यात्मिकता की झलक

सूफी मत में प्रेम (इश्क) आध्यात्मिकता का मूल आधार है, जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का सबसे शक्तिशाली और प वित्र मार्ग माना...

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