Guru Ji

हनुमान जी की पूंछ में लगी आग: शक्ति, भक्ति और विवेक का प्रतीक

हनुमान जी द्वारा अपनी पूंछ से लंका जलाने की घटना रामायण में एक महत्वपूर्ण और प्रतीकात्मक प्रसंग है, जिसका आध्यात्मिक रहस्य गहरा है। इसे...

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आत्मा से जुड़ने की साधना: चक्र, कुण्डलिनी और समाधि की यात्रा

जब शरीर में कोई चक्र नहीं, तो 7 चक्रों का विवरण क्यों?सात चक्र (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, सहस्रार) भौतिक शरीर में कोई...

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शरीर मे जो चक्र बताये गया है उन स्थानों का नाम।उस शरीर के साथ पर आध्यात्मिक।ऊर्जा के केंद्र ये नाम योग शास्त्र में इन स्थानों के बताए गए है जो वास्तव चक्र न होकर आध्यात्मिक।ऊर्जा के स्थान है चक्र वास्तव में शरीर में “ऊर्जा केंद्र” ही हैं, लेकिन ये केवल स्थूल शरीर में नहीं, सूक्ष्म शरीर में स्थित होते हैं। जब आप ध्यान, साधना या समाधि में गहराई से उतरते हैं, तो ये चक्र ऊर्जावान हो उठते हैं और उनकी प्रकृति बदलने लगती है।हम जानते है कि शरीर मे यमप्रमुख ऊर्जा केंद्र (चक्र है जो हमारी अंदर उतपन्न समाधि की ऊर्जा से संबंध रखते है हमे इस बात पर गहराई से सोचना होता है कि येचक्र स्थान ऊर्जा की प्रकृति हैंऔर इनका समाधि में क्या होता हैवह।जानते है जब हम ध्यान में बैठते है तो हमारा मूलाधार तानी गुदा के पास ऊर्जा के स्पंदन का आभास होता है येमूलाधार रीढ़ की हड्डी के मूल में स्थिरता, जीवन शक्ति का पहला स्थान है जो सर्व परथम जागरण साधना से होता जागरण की शुरुआतस्वाधिष्ठान नाभि के नीचे इच्छा, कामना, रचनात्मक ऊर्जा इच्छाओं का शुद्धिकरणमणिपुर नाभि के पास आत्मबल, अग्नि, इच्छा शक्ति आंतरिक तेज जाग्रत होता हैअनाहत हृदय स्थान प्रेम, करुणा, शुद्ध चेतना अनाहद नाद (शब्द रहित ध्वनि) की अनुभूतिविशुद्धि कंठ क्षेत्र वाणी, अभिव्यक्ति, आत्मसत्य आकाश तत्व की अनुभूतिआज्ञा भ्रूमध्य ध्यान, ज्ञान, बुद्धि त्रिकालदर्शी चेतनासहस्रार सिर के ऊपर ब्रह्मज्ञान, समाधि आत्मा-परमात्मा का मिलन अब हमें जानना है कि आध्यात्मिकसमाधि में क्या होता है?हम।जानते है जब हमारे शरीर के अंदर के चक्र गुरु कृपा से ऊर्जित हो जाग्रत व चक्र ऊर्जामय हो जाते हैं और हमारे शरीर मे स्थूल से सूक्ष्म स्तर पर कार्य करते हैं।इसके बाद मूल चक्र जोहृदय चक्र (अनाहत) होता है ये गुरु के द्वारा दी गैंउर्जा से या स्वममकी पूजा पैठ धार्मिक अनुस्थ्सन से किसी भी तरह से एक्टिव होने पर “अनाहद नाद” की ध्वनि सुनाई देती है – यह बाह्य नहीं, बल्कि अंतः श्रवणध्वनि होती है।सहस्रार खुलने पर, चक्रों की क्रियाएं शांत हो जाती हैं और आत्मा शुद्ध ब्रह्म अवस्था में लीन हो जाती है।

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“जब दो आत्माएँ इस जन्म में मिलती हैं, तो वह केवल एक संयोग नहीं होता। यह मिलन तभी संभव होता है जब उनकी रूहों के बीच पूर्व जन्म से कोई गहरा संबंध हो — कोई पहचान, कोई घनिष्ठता, कोई अधूरा अध्याय। आत्माएँ प्रेम से एक-दूसरे की ओर आकर्षित होती हैं, और यह आकर्षण केवल शारीरिक या मानसिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक होता है।

गुरु और शिष्य का संबंध भी ऐसा ही होता है। बिना पूर्व जन्मों के संस्कारों और आध्यात्मिक तैयारी के, किसी को सच्चे गुरु की...

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।आज फिर न जाने क्यों मन मेआया की आईने से कुछ पुछु क्योकि आईना कभी झूठ नही बोलता ओर सत्संग में चलने वालों का कभी ईमान नही डोलता है ईमान उनके संग ओर सत पर टिका रहता है जो समर्पित होते है मेरे द्वारे पर न मिले भोजन तो कभी चुरा के नही खाता भूख दुनिया छोड़ सकता है लर उसका ईमान कभी नही डगमगाता जानते हो ऐसे व्यक्ति गुरु के परम भक्त होते है नही करते बईमानी चोरी झूटी शिकायत ओर धोखेबाजी क्योकि उनका दिल पहले से ही गुरु शरण मे होता है चाहे कितना ही कुछ करलो अपने ईमान पर टिका होता है जो होते है समर्पित अपने ईमान के प्रति ईश्वर भी उनपर नजर रखता है ले लेता है कदम कदम पर परीक्षा फिर उसे अपनी गोद मे बैठकर मुक्त कर उसे अपने दरबार मे जगह संत की देता है बात आईने की सुन मैं घबरा गया और पसीने पसीने हो सोचने लगा कि ये क्या कह रहा है अगर मुझमे होते ये गुण तोक्यो मुझे आईना बताता की कैसे बनते है संत ये राज क्यो बताता मैं पतित दोषो से भरा जिसके दिल मे कपट भरा आज तक भी सच क्या होता है ये जान न पाया व्यर्थ ही दिखावा कर लोगो को बेवकूफ बनाया आज समझ गया अगर उसे पाना है तो घर बार मोह त्याग कर उसके प्रति समर्पित होना होगा जीवन के बचे क्षण गुरु देव को समर्पित करना होगा जो किये कर्म उनका प्रायश्चित करना होगा फिर जब गुनाह कम हो उनका फल मिलने लगेगा सोचले पवन तब तुझे ज्ञान का मसर्ग मिलके लगेगा होगी उसके प्रेम की वर्षा उस जल में सारे पाप धुल जायेगे ओर आध्यात्मिक ज्ञान भक्ति ध्यान और समाधि के सभी गुण तुझमे आ जायेगा रोम।रोम हरि नाम से गूंज उठेगा तू सीख जाएगाक्या होता है समर्पण पर इस जन्म में तो नही पर अगले जन्म में मोक्ष हो गुरु चरणों मे पहुच जाएगा

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मैंने बहुत से संत वैराग्य लिए आध्यात्मिक जीवन जीते देखा है और बहुत से नेक ओर उच्च कोटि के संतों से मुलाकात भी हुई ओर उनकी कृपा वो भी अध्भुत पाई है और उनसे जो आध्यात्मिक ज्ञान मिला पर जब कभी भी अकेले में रह कर सोचा तो मुझे मेरे जीवन मे कहि न कही कमी पाई वो कमी मेरे करतवयो में या पूर्व जन्म के संस्कारों में हो सकती थी पर मुझे गृहस्थ जीवन मे रह कर पल के ओर माता पिता की शरण मे रह कर आध्यात्मिकता को पाने की लालसा रही और ये आध्यात्मिकता ज्यादा मुझे मेरी मा से मिली चुकी पिताजी गृहस्थ में रह कर गृहस्थ धर्म की पालना करते हुवे पूर्ण संत हुवे पर मा के कर्म इतना महान थे कि वो मेरी प्रेरणा के स्त्रोत्र बने ओर उनकी इसी सीख ने मुझे मातृ पितृ स्मृति में एक उनकी याद में मंदिर बनाने की प्रेरणा मिली और बना लिया मैंने “गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी आध्यात्मिक उन्नति और संतत्व की प्राप्ति” का प्रयास किया है, जिसमें कई संतों का आशीर्वाद रहा मेरे गृहस्थ जीवन मे सन्तता पाने के लिए जो विचार और उदाहरण मुझे ज्ञान के रूप में माता पिता व गुरुदेव ठाकुर रामसिंह जी से मिले वह है ये ।गृहस्थ जीवन और संतत्व: एक आध्यात्मिकसामान्य धारणा यह है कि संतत्व केवल वैराग्य, सन्यास और तपस्वी जीवन के माध्यम से ही प्राप्त हो सकता है। परंतु भारतीय आध्यात्मिक परंपरा और अनेक संतों के जीवन से ओर मेरे माता पिता के गृहस्थ जीवन से यह सिद्ध होता है कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी कोई व्यक्ति महान संत, योगी और जीवन-मुक्त बन सकता है धर्म और साधना का में उच्चवह स्तिथि के लिए कर्म जरूरी है ये कर्म समाज मे रह कर आध्यात्मिक किताबे ओर गृहस्थ धर्म को निभा कर बिना सन्यास लिए हम पा सकते हैगृहस्थ आश्रम मानव जीवन के चार आश्रमों में सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। यही आश्रम व्यक्ति को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की दिशा में संतुलित जीवन जीने की प्रेरणा देता है। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए व्यक्ति समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है, और यही कर्तव्यबुद्धि धीरे-धीरे उसे आत्मज्ञान की ओर ले जाती है।जहा गुरु की मेहर से या आध्यात्मिकता के ज्ञान से इंसान चरम अवस्था पर नित्य कर्म करते हुवे पहुच सकता है मैं मानता हूं सन्यास धर्म मे इंसान मोह माया से दूर अपने नैतिक जीवन को जी साधना कर चरम अवस्था पर पहुच सकता है वही गृहस्थ धर्म मे विफलता कठिनाई ओर गृहस्थ धर्म के अनुसार गुरु ग्रह कर चरम अवस्था पर पहुच सकते है उनमें मेरे माता पिता और मेंरे भाई बहिन ओर पिताजी के बनाये अनेक शिष्य है और शिष्यो में पहला आदर वाला व्यक्ति श्री भारत भूषण जी है फिर बिमल नाथ खन्ना और उनके बाद उनके प्रिय शिष्य दिनेश जी केशव बहिन अनन्त कोटिया कृष्णा शुक्ला व अन्य कुछ।ओर आये और अपने लालच जे कारण उच्च स्तिथि में नही पहुच सके मैंने भगवत गीता अपनी माँ के श्रीमुख से सुनी है उसमेंभगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं –”कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।अर्थात – “तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं।”मेरी सोच के अनुसार अवर निष्काम भाव से ईश्वर के प्रति समर्पित हो गृहस्थ जीवन बिना किसी स्वार्थ के जिया जाए तो मनुष्य अध्यातम के शिखर पर पहुच सकता हमारी सिच के अनुसार ये सोच गृहस्थ जीवन के लिए अत्यंत उपयुक्त है – अपने कर्तव्यों का निष्काम भाव से पालन करना हीजीवन की एक निस्वार्थ आध्यात्मिक नियमित साधना बन जाती है। यहां पर कुछ संतो के विचार उपरोक्त केसमर्थन में हैसंत तुकाराम (महाराष्ट्र)संत तुकाराम एक गृहस्थ थे – परिवार, व्यापार और समाज के उत्तरदायित्वों के बीच रहते हुए भी वे संत बने। उन्होंने गृहस्थ जीवन को त्यागे बिना ही नाम-स्मरण और भक्ति में ऐसी गहराई पाई कि वे संतों की श्रेणी में सर्वोच्च माने जाते हैं।उनकी ये वाणी इस बात को सार्थन देती है”गृही राहो, पंढरी पाहो”(गृहस्थ रहो, पर परमात्मा की ओर दृष्टि रखो) इसके अलावा आध्यात्मिक प्रेरणा के स्त्रोत् संत कबीरदास कबीर एक जुलाहे थे, गृहस्थ जीवन में संतान, व्यवसाय और समाज की जिम्मेदारी निभाते हुए उन्होंने अद्वैत भाव में स्थित होकर “संतत्व” को प्राप्त किया। वे कहते हैं –”घर में रहो, मन में गहिराई लाओ, बाहर नहीं ग्रगस्थ धर्म के अनुसार आध्यात्मिक जीवन जीना जिसमे भक्ति ज्ञान ध्यान और समाधि से हम ईश्वर को।पा सजते है और विचारों पर नियंत्रण कर एक चरम अवस्था गुरु के ज्ञान के कर पहुच सकते है उन्होंने स्पष्ट किया कि साधना भीतर की प्रक्रिया है, बाहर का दिखावा नही है राजा जनक, मिथिला के महाराज होते हुए भी “विदेह” कहलाए। उन्होंने महर्षि अष्टावक्र से ज्ञान प्राप्त किया और ज्ञानयोग द्वारा जीवन-मुक्त हुए। वे गृहस्थ, शासक और ज्ञानी संत सभी एक साथ थे। अष्टावक्र गीता में जनक कहते हैं –”मैं कुछ नहीं करता, सब प्रकृति कर रही है।”उनकी दृष्टि में निष्क्रियता में भी परम ज्ञान था।गृहस्थ जीवन में कर्म करते हुवे हम योग जी चरम अवस्था को पा सकते है इसके लिए हमे निष्काम कर्म – कर्तव्य करते हुए फल की अपेक्षा न रखना है और इसी पर केंद्रित अपने को करना है गुरु की शरण – आत्मज्ञान की राह में गुरु की कृपा अत्यंत आवश्यक है।जो हमे गूढार्थ समझा सकता है और अपने अनुभव से मार्ग दर्शन करता . है और भक्ति और नाम-स्मरण – भगवान के नाम का स्मरण जीवन की गति बदल सकता है। संतों का संग – सत्संग द्वारा विवेक और वैराग्य का जागरण होता है। मेरी निजी सोच के अनुसार गृहस्थी आध्यात्मिक जीवन मे बाधा न होकर एक नित्य जीवन का कर्म है जो गृहस्थ जीवन कोई बाधा नहीं, बल्कि संतत्व की पाठशाला होती है । इसका प्रमाण भारत के संत इतिहास में स्पष्ट है। तुकाराम, कबीर, जनक, नरसी मेहता, दादू दयाल जैसे संतों ने जीवन को जीते हुए, धर्म निभाते हुए ही मुक्ति पाई।मैं जानता हु की किसी भी इंसान में धर्म की आस्था व उसके प्रति भावना, गुरु की कृपा और ईश्वर का स्मरण – यही गृहस्थ को संत बना सकता है।

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