Vachan

कर्म, धर्म और गृहस्थ जीवन का हिंदू दर्शन में विशेष महत्व है, क्योंकि ये तीनों एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हैं और जीवन के उद्देश्य (पुतवरुषार्थ: धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) को प्राप्त करने में सहायक हैं।ये बात जब भी मन मे आती है तो लगता है जो गृहस्थ रह कर तपश्या मनुष्य करता है वह अलग ही होती है और कर्म करते हुवे अपने को गृहस्थ धर्म का अपनी योग्यता के अनुसार निभाना ये मनुष्य के लिए विशेष महत्व रखता है मांनव जनम लेता है और परिवार में उसका पालन पोषण होता है बड़ा होकर चाहे पुरुष हो या स्त्री शिक्षस लेते है और शादी के बाद अनजान परिवार में शादी कर पति पत्नी बन के जो ग्रहड्थ कि कर्मो के साथ जीवन जीते है ये अनूठा बन्धन ही हमे कर्म से बांध कर प्रेम और कर्म में बढ़ता है और ईश वॉर की तरह से गृहस्थ में पति पत्नी बन माता पिता और परिवार का अपने बल पर संचालित करता है और पति पत्नी डोंयो का अटूट साहस ही इसमें योगदान देता है पत्नी अपना निजी घर माता पिता को छोड़ एक अलग परिवार से जुड़ जाती है और मर्त्य तक उसी परिवार को अपना मां अपना धर्म का पालन करती है इससे बड़ा गृहस्थ में त्याग नही हो सकता और फिर अपने परिवार में स्वम् के बच्चों को वो संस्कार देती है जिससे परिवार फल फूलता है और मसान सम्मान करना सीखता है ओर गृहस्थ धर्म चार आश्रम में से एक है जबकि हिंदू धर्म में चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) में से एक है और इसे जीवन का आधार माना जाता है। इसकव इस तरह से समझ सकते है इसमे पहला कर्म और धर्म का महत्व दिया गया है और इसमें भी कर्म पहले हैहिंदू दर्शन में कर्म का अर्थ है कर्तव्य, कार्य और नैतिक दायित्व। यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म के अनुरूप होना चाहिए। कर्म न केवल व्यक्तिगत विकास के लिए, बल्कि समाज और विश्व के कल्याण के लिए भी महत्वपूर्ण है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” (कर्म में तेरा अधिकार है, फल में नहीं), जो यह दर्शाता है कि कर्म निष्काम भाव से करना चाहिए i इसके बाद आता है धर्म: यहां धर्म का अर्थ है नैतिकता, कर्तव्य और जीवन का सही मार्ग। यह व्यक्ति को सत्य, अहिंसा, दया, और समाज के प्रति जिम्मेदारी का पालन करने की प्रेरणा देता है। गृहस्थ जीवन में धर्म का पालन परिवार, समाज और आत्मा के प्रति कर्तव्यों को संतुलित करने में होता है पर कर्म और द्धर्म एक दूसरे के पूरक है इनमे भी ।संबंध है कर्म और धर्म एक-दूसरे के पूरक हैं। धर्म कर्म को दिशा देता है, और कर्म धर्म को साकार करता है। गृहस्थ जीवन में यह संतुलन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह वह अवस्था है जहां व्यक्ति समाज और परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाता है. गृहस्थ जीवन का विशेष महत्वगृहस्थ आश्रम को हिंदू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि:सामाजिक आधार: गृहस्थ जीवन समाज का आधार है। यह परिवार, शिक्षा, संस्कृति और धर्म को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का माध्यम है।धर्म का पालन: गृहस्थ जीवन में व्यक्ति यज्ञ, दान, सेवा और अन्य धार्मिक कृत्यों के माध्यम से धर्म का पालन करता है। यह आश्रम अन्य आश्रमों (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, संन्यास) को आर्थिक और सामाजिक रूप से समर्थन देता है।ओर : गृहस्थ जीवन में व्यक्ति धर्म, अर्थ (आर्थिक समृद्धि) और काम (इच्छाओं की पूर्ति) का संतुलन बनाए रखता है, जो अंततः मोक्ष की ओर ले जाता है ओर ।कर्तव्यों का निर्वहन करता है गृहस्थ व्यक्ति पितृऋण, देवऋण और ऋषिऋण का निर्वहन करता है। यह परिवार, समाज और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी निभाने का समय है गृहस्थ में । वह व्यक्ति है जो आत्मज्ञान, भक्ति, और परम सत्य की खोज में लीन रहता है और संतत्व का आधार धर्म की मान्यताओं से अधिक आध्यात्मिकता, निःस्वार्थता और सत्य के प्रति समर्पण पर निर्भर करता है गृहस्थ में संत: होना हमारे हिंदू धर्म में कई उदाहरण हैं जहां गृहस्थ जीवन जीने वाले व्यक्ति संत बने। जैसे, राजा जनक, जो गृहस्थ थे, लेकिन उनकी आध्यात्मिकता और कर्मयोग के कारण उन्हें “विदेही” कहा गया। इसी तरह, संत तुकाराम और मीराबाई जैसे भक्तों ने गृहस्थ जीवन में रहते हुए भक्ति और आध्यात्मिक ऊंचाइयों को प्राप्त किया।हिंदू धर्म की मान्यताओं को न मानने वाला संत: हिंदू धर्म उदार और समावेशी है। यह कर्म, भक्ति, और ज्ञान के विभिन्न मार्गों को स्वीकार करता है। यदि कोई गृहस्थ हिंदू धर्म की परंपरागत मान्यताओं (जैसे मूर्तिपूजा, कर्मकांड आदि) में विस्वास नही रखता ओर मन से नही मानता, लेकिन सत्य, प्रेम, और निःस्वार्थता के मार्ग पर चलता है, तो वह संतत्व प्राप्त कर सकता है। उदाहरण के लिए, कबीर और नानक जैसे संतों ने परंपरागत कर्मकांडों पर कम जोर दिया और भक्ति व नैतिकता को प्राथमिकता दी।आवश्यक गुण: संतत्व के लिए आवश्यक है आत्म-जागरूकता, करुणा, और परम सत्य के प्रति समर्पण। यह गुण किसी भी धर्म या मान्यता से परे हैं अब हम सोचते है कि क्या गृहस्थी कर्म छोड़कर संत बन सकता हैहिंदू दर्शन में संत बनने के लिए गृहस्थी कर्म छोड़ना आवश्यक नहीं है। हालांकि, कुछ लोग संन्यास आश्रम में प्रवेश करते हैं, लेकिन यह एकमात्र मार्ग नहीं है।गृहस्थी में संतत्व: गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी व्यक्ति निष्काम कर्म, भक्ति और ध्यान के माध्यम से संतत्व प्राप्त कर सकता है। उदाहरण के लिए, गीता में कर्मयोग और भक्तियोग का मार्ग गृहस्थों के लिए ही बताया गया है। राजा जनक और संत तुकाराम इसके जीवंत उदाहरण हैं।संन्यास और गृहस्थी का अंतर: संन्यास में व्यक्ति सांसारिक बंधनों को त्याग देता है, लेकिन गृहस्थी में व्यक्ति इन बंधनों के बीच रहकर भी आध्यात्मिकता को जी सकता है। गृहस्थी छोड़ना संतत्व का आधार नहीं है; यह मन की शुद्धता और आत्म-ज्ञान पर निर्भर करता है।आधुनिक परिप्रेक्ष्य: आज के समय में, कई लोग गृहस्थ जीवन में रहते हुए ध्यान, योग, और सेवा के माध्यम से आध्यात्मिक जीवन जीते हैं। जैसे, मेरे पिता संत राधामोहन लाल जी संत ठाकुर राम सिंहजी संत श्रीमाली व श्री भारत भूषण जी शर्मा दुर्गादासजी अनेक धार्मिक व्यक्ति जिन्हें हम जानते नही पर गृहस्थ में रह कर संत पद तक पहूचे अन्य गुरु जो हुवे वो भी हमे गृहस्थ जीवन को आध्यात्मिकता के साथ जोड़ने की प्रेरणा देते हैं। मेरी सोच के अनुसार कर्म और धर्म गृहस्थ जीवन में इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये व्यक्ति को नैतिकता, कर्तव्य और आध्यात्मिकता के साथ जीने की प्रेरणा देते हैं। गृहस्थ जीवन समाज और धर्म का आधार है, जो व्यक्ति को पुरुषार्थों की प्राप्ति में सहायता करता है। गृहस्थी में संत बनना संभव है, चाहे वह हिंदू धर्म की परंपरागत मान्यताओं को माने या न माने, बशर्ते वह सत्य, करुणा और आत्म-जागरूकता के मार्ग पर चले। गृहस्थी कर्म छोड़ना संतत्व के लिए आवश्यक नहीं है; यह मन की शुद्धता और निःस्वार्थ कर्म पर निर्भर करता है ।

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सूफी मत में प्रेम (इश्क) आध्यात्मिकता का मूल आधार है, जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का सबसे शक्तिशाली और प वित्र मार्ग माना...

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ठीक है, तो चलिए इस विचार को थोड़ा और गहराई से समझते हैं। मैंने कहा कि “मौत का अहसास बहुत खतरनाक होता है और उसके बाद जीवन सुखमय होता है, ये प्रकृति का नियम है।” यह विचार कई दार्शनिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में अलग-अलग रूपों में देखने को मिलता है। मैं इसे कुछ बिंदुओं के जरिए और विस्तार से देखने की कोशिश करता हूँ, और आप मुझे बताएँ कि आप इसे किस दिशा में ले जाना चाहते हैं:मौत का अहसास और उसका प्रभाव: मृत्यु का विचार या उसका करीबी अनुभव (जैसे कोई हादसा, बीमारी, या किसी अपने का नुकसान) इंसान को अपनी जिंदगी की नाजुकता का अहसास कराता है। यह “खतरनाक” इसलिए हो सकता है क्योंकि यह हमारे रोजमर्रा के भ्रम को तोड़ता है कि हम हमेशा रहेंगे। लेकिन यह डर या अहसास हमें जीवन को ज्यादा गंभीरता से लेने के लिए भी प्रेरित करता है। क्या आप इस “खतरनाक” अहसास को किसी खास अनुभव या भावना के रूप में देख रहे हैं?जीवन का सुखमय होना: मृत्यु का अहसास होने के बाद जीवन को सुखमय बनाने का मतलब शायद यह है कि हम छोटी-छोटी चीजों की कद्र करने लगते हैं—जैसे रिश्ते, प्रकृति, या अपने सपने। कई लोग कहते हैं कि मृत्यु के करीब जाने के बाद उन्हें जीवन का असली मोल समझ आया। क्या आप यहाँ किसी व्यक्तिगत अनुभव, आध्यात्मिक दृष्टिकोण, या प्रकृति के चक्र (जैसे जन्म-मृत्यु-नया जन्म) की बात कर रहे हैं?प्रकृति का नियम: प्रकृति में हर चीज एक चक्र का हिस्सा है। जैसे पेड़ के पत्ते गिरते हैं, फिर नए पत्ते आते हैं। क्या आप इस नियम को जीवन और मृत्यु के चक्र के रूप में देखते हैं, या इसका कोई और गहरा अर्थ है, जैसे कर्म, आत्मा, या पुनर्जनन?अगर आप चाहें, तो मैं इस विषय को किसी खास दार्शनिक या आध्यात्मिक परंपरा (जैसे वेदांत, बौद्ध धर्म, या सूफी मत) के नजरिए से भी देख सकता हूँ। या फिर आप कोई व्यक्तिगत अनुभव साझा करना चाहते हैं, जिसने आपको इस विचार तक पहुँचाया? आप मुझे बताएँ कि आप इस बात को कहाँ ले जाना चाहते हैं!

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जीवन और मरण से मुक्ति, जिसे अक्सर मोक्ष या निर्वाण कहा जाता है, भारतीय दर्शन और आध्यात्मिकता में एक गहन अवधारणा है। यह चक्रवर्ती...

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पिताजी बहुत कम बोलते थे और कुछ कहते उसे विस्तार से समझाते थे उनका कहना था कि एक शिष्य का मुख्य धर्म है गुरु...

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पिताजी साहब का कहना था कि जब कोई पूर्ण गुरु जो संत रूप में होता है जब किसी योग्य व्यक्ति को शिष्य बनाता है...

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यह दोहा संत कबीर का है, जिसमें वे तीर्थयात्रा और बाहरी कर्मकांडों की सार्थकता पर प्रश्न उठाते हैं। इसका अर्थ है कि लोग तीर्थ-तीर्थ घूमते हैं, पवित्र जल में स्नान करते हैं, लेकिन वास्तविक भक्ति और आत्मिक शुद्धि हृदय में राम (ईश्वर) के प्रति सच्ची श्रद्धा और प्रेम से ही प्राप्त होती है। केवल बाहरी कर्मकांडों से न तो आत्मा का उद्धार होता है, न ही मृत्यु का भय (काल) टलता है।कबीर कहते हैं कि सच्ची भक्ति भीतर की शुद्धता और ईश्वर के प्रति समर्पण में है, न कि बाहरी तीर्थों या स्नान में।

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अगर 6 6 महीने उतरायन ओर दक्षिण यायन रहेगा तो क्या दक्षीनयन में जो खत्म होगा चाहे संत हो मोक्ष नही होगी ये फिजूल।की बात क्यो ओर इसका क्या महत्व यर मेरी सोच है जबकि मोत तो जब आएगी तभी होगीमेरा ये प्रश्न है जो कि बहुत गहरा और दार्शनिक है, जो उत्तरायण और दक्षिणायन के ज्योतिषीय महत्व, मोक्ष की अवधारणा, और मृत्यु के समय के संदर्भ में उठता है। कि यदि उत्तरायण और दक्षिणायन दोनों छह-छह महीने के होते हैं, तो क्या दक्षिणायन में मृत्यु होने पर संत जैसे व्यक्ति को भी मोक्ष नहीं मिलेगा, और क्या यह मान्यता फिजूल है, क्योंकि मृत्यु तो अनियंत्रित है ओर निश्चित है और जब आती है, तब आती है। इस प्रश्न को हिंदू दर्शन, ज्योतिष, और महाभारत के संदर्भ (विशेषकर भीष्म और कर्ण के प्रसंगों) में समझाने का प्रयास करता हु । साथ ही, मैं इसे संक्षिप्त और स्पष्ट रखने की कोशिश भी करूँगा उत्तरायण और दक्षिणायन का ज्योतिषीय और आध्यात्मिक महत्वउत्तरायण (6 महीने, जनवरी-जून):यह समय सूर्य की उत्तर दिशा की गति का होता है, जो मकर संक्रांति (लगभग 14 जनवरी) से शुरू होता है। भगवद गीता में कहा गया है कि उत्तरायण में देह त्यागने वाली आत्माएँ ब्रह्मलोक या मोक्ष की ओर जाती हैं।सूर्य, जो आत्मा और जीवन शक्ति का कारक है, इस समय प्रबल होता है। यह समय सकारात्मक ऊर्जा, प्रगति, और आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनुकूल माना जाता है।दक्षिणायन (6 महीने, जुलाई-दिसंबर):यह समय सूर्य की दक्षिण दिशा की गति का होता है, जो कर्क संक्रांति (लगभग 16 जुलाई) से शुरू होता है। गीता में कहा गया है कि दक्षिणायन में देह त्यागने वाली आत्माएँ पुनर्जनम के चक्र में रहती हैं।यह समय आत्म-चिंतन, पितृ कार्य, और तपस्या के लिए उपयुक्त माना जाता है, लेकिन मोक्ष प्राप्ति के लिए कम शुभ माना जाता हैक्या दक्षिणायन में मृत्यु होने पर संत को भी मोक्ष नहीं मिलेगी मेरा यह प्रश्न का पहला हिस्सा यह है कि क्या दक्षिणायन में मृत्यु होने पर संत जैसे व्यक्ति को भी मोक्ष नहीं मिलेगा। इसका जवाब हिंदू दर्शन और ज्योतिष के आधार पर निम्नलिखित हैमोक्ष कर्मों पर निर्भर करती है, न कि केवल समय परभगवद् गीता में उत्तरायण और दक्षिणायन का उल्लेख सामान्य आत्माओं के लिए है, न कि उन संतों या साधकों के लिए जो पहले ही आध्यात्मिक रूप से उच्च स्तर पर पहुँच चुके हैं। एक संत, जो अपने कर्म, साधना, और भक्ति से मोक्ष के योग्य हो चुका है, उसे मृत्यु का समय (उत्तरायण या दक्षिणायन) बाधित नहीं करता।उदाहरण के लिए, कई संत जैसे आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, या स्वामी विवेकानंद की मृत्यु दक्षिणायन में हुई, लेकिन उनकी आध्यात्मिक साधना के कारण उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ माना जाता है। मोक्ष कर्म, भक्ति, और आत्म-साक्षात्कार पर निर्भर करता है, न कि केवल ज्योतिषीय समय पर।उत्तरायण-दक्षिणायन का महत्व सामान्य आत्माओं के लिए:गीता का उल्लेख सामान्य मनुष्यों के लिए है, जिनके कर्म और साधना का स्तर संतों जैसा नहीं होता। उत्तरायण का समय सूर्य की प्रबल ऊर्जा के कारण आत्मा को उच्च लोकों की ओर ले जाने में सहायक होता है, जबकि दक्षिणायन में आत्मा कर्म बंधनों में रह सकती है।संतों के लिए, जो पहले ही कर्म बंधनों से मुक्त हो चुके हैं, यह नियम लागू नहीं होता।भीष्म का उदाहरण:भीष्म ने उत्तरायण में देह त्यागा क्योंकि वे ज्योतिषीय और आध्यात्मिक नियमों के प्रति जागरूक थे। वे मोक्ष प्राप्त करना चाहते थे, और उनकी इच्छामृत्यु की शक्ति ने उन्हें समय चुनने का अवसर दिया। लेकिन यह उनकी साधना और धर्मनिष्ठा का परिणाम था, न कि केवल समय का प्रभाव।कर्ण का उदाहरण:कर्ण की मृत्यु दक्षिणायन में हुई, और उनकी मृत्यु त्रासद थी। यह उनके कर्म बंधनों (श्राप, दुर्योधन की मित्रता) और अधूरी साधना का प्रतीक हो सकता है। लेकिन कर्ण की उदारता और धर्मनिष्ठा के कारण उन्हें भी उच्च स्थान प्राप्त हुआ माना जाता है, हालाँकि वह मोक्ष तक नहीं पहुँचा।क्या यह मान्यता फिजूल है?आपके प्रश्न का दूसरा हिस्सा यह है कि क्या उत्तरायण-दक्षिणायन की मान्यता फिजूल है, क्योंकि मृत्यु का समय मनुष्य के नियंत्रण में नहीं होता। इसका जवाब निम्नलिखित है:मान्यता का महत्व:उत्तरायण और दक्षिणायन की अवधारणा हिंदू ज्योतिष और दर्शन में प्रकृति के चक्र और कर्म सिद्धांत से जुड़ी है। यह मान्यता फिजूल नहीं है, बल्कि यह जीवन को एक व्यवस्थित और आध्यात्मिक दृष्टिकोण देती है।यह समय-चक्र मनुष्य को अपने कर्मों के प्रति जागरूक करता है। उदाहरण के लिए, उत्तरायण में शुभ कार्य और दक्षिणायन में पितृ कार्य करने की परंपरा इस विश्वास से उपजी है।यह मान्यता कर्म और साधना के महत्व को रेखांकित करती है, न कि केवल मृत्यु के समय को। यह मनुष्य को जीवन में धर्म, तप, और भक्ति की ओर प्रेरित करती है ताकि मृत्यु के समय की परवाह न करनी पड़े।मृत्यु का समय अनियंत्रित क्यों?:आप सही कहते हैं कि मृत्यु का समय मनुष्य के नियंत्रण में नहीं होता। अधिकांश लोग अपनी मृत्यु का समय नहीं चुन सकते, जैसे भीष्म ने किया। लेकिन हिंदू दर्शन में यह माना जाता है कि जीवनकाल में किए गए कर्म और साधना मृत्यु के समय के प्रभाव को कम कर सकते हैं।उदाहरण के लिए, एक साधक जो भगवान की भक्ति में लीन है, वह किसी भी समय मृत्यु होने पर मोक्ष प्राप्त कर सकता है, क्योंकि उसकी आत्मा पहले ही कर्म बंधनों से मुक्त हो चुकी होती है।फिजूल क्यों नहीं?:यह मान्यता मनुष्य को जीवन में सही कर्म करने, साधना करने, और आध्यात्मिक जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रेरित करती है। यह एक मार्गदर्शन है, न कि कठोर नियम।उत्तरायण और दक्षिणायन का महत्व प्रकृति के साथ मानव जीवन के तालमेल को दर्शाता है। यह समय के चक्र को समझने और जीवन को सार्थक बनाने का एक तरीका है।यह मान्यता कर्म सिद्धांत का हिस्सा है, जो कहता है कि हमारे कर्म ही हमारे भविष्य को निर्धारित करते हैं। मृत्यु का समय केवल एक कारक है, न कि अंतिम निर्धारक।इसका महत्व क्या है?आध्यात्मिक महत्व:उत्तरायण और दक्षिणायन का चक्र मनुष्य को प्रकृति के साथ संतुलन में जीने की प्रेरणा देता है। यह समय के महत्व और कर्मों के प्रभाव को समझने में मदद करता है।यह मान्यता मनुष्य को जीवन में साधना, दान, और धर्म के कार्य करने के लिए प्रेरित करती है ताकि मृत्यु का समय चाहे जो हो, आत्मा उच्च स्तर की ओर जाए।ज्योतिषीय महत्व:सूर्य की गति (उत्तरायण और दक्षिणायन) ग्रहों और नक्षत्रों के प्रभाव को प्रभावित करती है। उत्तरायण में सूर्य की प्रबलता आत्मा को उच्च ऊर्जा प्रदान करती है, जबकि दक्षिणायन में चंद्रमा और पितृ कार्यों का प्रभाव बढ़ता है।यह चक्र कुंडली में सूर्य, शनि, और राहु/केतु के प्रभाव को समझने में मदद करता है।सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व:उत्तरायण में मकर संक्रांति, पोंगल जैसे त्योहार और दक्षिणायन में पितृ पक्ष, गुरु पूर्णिमा जैसे अवसर इस चक्र को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण बनाते हैं।यह मान्यता समाज को एकजुट करती है और जीवन के विभिन्न पहलुओं (कृषि, धर्म, साधना) को समय के साथ जोड़ती है। मृत्यु का समय और मोक्ष: एक संतुलित दृष्टिकोणमृत्यु अनियंत्रित, लेकिन कर्म नियंत्रित:यह सत्य है कि मृत्यु का समय हमारे हाथ में नहीं है। लेकिन हिंदू दर्शन कहता है कि जीवन में किए गए कर्म और साधना मृत्यु के समय के प्रभाव को कम कर सकते हैं।एक संत या साधक, जो जीवन में भक्ति और कर्म से मुक्त हो चुका है, उसे उत्तरायण या दक्षिणायन का बंधन नहीं बाँधता। उदाहरण के लिए, भगवान राम या श्रीकृष्ण की मृत्यु का समय ज्योतिषीय रूप से विश्लेषित नहीं किया जाता, क्योंकि वे स्वयं मुक्त आत्माएँ थे।भीष्म और कर्ण का उदाहरण:भीष्म ने उत्तरायण चुना क्योंकि उनकी इच्छामृत्यु की शक्ति थी, और वे मोक्ष के लिए ज्योतिषीय समय का लाभ उठाना चाहते थे। यह उनकी साधना और जागरूकता का परिणाम था।कर्ण की मृत्यु दक्षिणायन में हुई, लेकिन उनकी उदारता और धर्मनिष्ठा ने उन्हें उच्च स्थान दिलाया। यह दर्शाता है कि कर्म और साधना समय से अधिक महत्वपूर्ण हैं।संतों के लिए:एक संत, जो आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर चुका है, उसे मृत्यु का समय बाधित नहीं करता। गीता में कहा गया है कि जो भगवान में लीन है, वह किसी भी समय मोक्ष प्राप्त कर सकता है निष्कर्षउत्तरायण-दक्षिणायन की मान्यता फिजूल नहीं:यह मान्यता प्रकृति, कर्म, और आध्यात्मिकता के बीच संतुलन को दर्शाती है। यह मनुष्य को जीवन में सही कर्म करने और साधना की ओर प्रेरित करती है।यह ज्योतिषीय और आध्यात्मिक मार्गदर्शन है, जो सामान्य मनुष्यों के लिए उपयोगी है, लेकिन संतों या साधकों पर लागू नहीं होता।मृत्यु का समय और मोक्ष:मृत्यु का समय अनियंत्रित है, लेकिन कर्म और साधना नियंत्रित हैं। एक साधक अपने जीवनकाल में मोक्ष के योग्य बन सकता है, चाहे मृत्यु किसी भी समय हो।संतों के लिए, जो पहले ही कर्म बंधनों से मुक्त हो चुके हैं, उत्तरायण या दक्षिणायन का कोई बंधन नहीं है।महत्व:यह मान्यता जीवन को अर्थ देती है, कर्मों के प्रति जागरूकता बढ़ाती है, और प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने में मदद करती है।यह समय के चक्र को समझने और जीवन को सार्थक बनाने का एक दार्शनिक और ज्योतिषीय दृष्टिकोण प्रदान करती है।

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शरीर मे जो चक्र बताये गया है उन स्थानों का नाम।उस शरीर के साथ पर आध्यात्मिक।ऊर्जा के केंद्र ये नाम योग शास्त्र में इन स्थानों के बताए गए है जो वास्तव चक्र न होकर आध्यात्मिक।ऊर्जा के स्थान है चक्र वास्तव में शरीर में “ऊर्जा केंद्र” ही हैं, लेकिन ये केवल स्थूल शरीर में नहीं, सूक्ष्म शरीर में स्थित होते हैं। जब आप ध्यान, साधना या समाधि में गहराई से उतरते हैं, तो ये चक्र ऊर्जावान हो उठते हैं और उनकी प्रकृति बदलने लगती है।हम जानते है कि शरीर मे यमप्रमुख ऊर्जा केंद्र (चक्र है जो हमारी अंदर उतपन्न समाधि की ऊर्जा से संबंध रखते है हमे इस बात पर गहराई से सोचना होता है कि येचक्र स्थान ऊर्जा की प्रकृति हैंऔर इनका समाधि में क्या होता हैवह।जानते है जब हम ध्यान में बैठते है तो हमारा मूलाधार तानी गुदा के पास ऊर्जा के स्पंदन का आभास होता है येमूलाधार रीढ़ की हड्डी के मूल में स्थिरता, जीवन शक्ति का पहला स्थान है जो सर्व परथम जागरण साधना से होता जागरण की शुरुआतस्वाधिष्ठान नाभि के नीचे इच्छा, कामना, रचनात्मक ऊर्जा इच्छाओं का शुद्धिकरणमणिपुर नाभि के पास आत्मबल, अग्नि, इच्छा शक्ति आंतरिक तेज जाग्रत होता हैअनाहत हृदय स्थान प्रेम, करुणा, शुद्ध चेतना अनाहद नाद (शब्द रहित ध्वनि) की अनुभूतिविशुद्धि कंठ क्षेत्र वाणी, अभिव्यक्ति, आत्मसत्य आकाश तत्व की अनुभूतिआज्ञा भ्रूमध्य ध्यान, ज्ञान, बुद्धि त्रिकालदर्शी चेतनासहस्रार सिर के ऊपर ब्रह्मज्ञान, समाधि आत्मा-परमात्मा का मिलन अब हमें जानना है कि आध्यात्मिकसमाधि में क्या होता है?हम।जानते है जब हमारे शरीर के अंदर के चक्र गुरु कृपा से ऊर्जित हो जाग्रत व चक्र ऊर्जामय हो जाते हैं और हमारे शरीर मे स्थूल से सूक्ष्म स्तर पर कार्य करते हैं।इसके बाद मूल चक्र जोहृदय चक्र (अनाहत) होता है ये गुरु के द्वारा दी गैंउर्जा से या स्वममकी पूजा पैठ धार्मिक अनुस्थ्सन से किसी भी तरह से एक्टिव होने पर “अनाहद नाद” की ध्वनि सुनाई देती है – यह बाह्य नहीं, बल्कि अंतः श्रवणध्वनि होती है।सहस्रार खुलने पर, चक्रों की क्रियाएं शांत हो जाती हैं और आत्मा शुद्ध ब्रह्म अवस्था में लीन हो जाती है।

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“जब दो आत्माएँ इस जन्म में मिलती हैं, तो वह केवल एक संयोग नहीं होता। यह मिलन तभी संभव होता है जब उनकी रूहों के बीच पूर्व जन्म से कोई गहरा संबंध हो — कोई पहचान, कोई घनिष्ठता, कोई अधूरा अध्याय। आत्माएँ प्रेम से एक-दूसरे की ओर आकर्षित होती हैं, और यह आकर्षण केवल शारीरिक या मानसिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक होता है।

गुरु और शिष्य का संबंध भी ऐसा ही होता है। बिना पूर्व जन्मों के संस्कारों और आध्यात्मिक तैयारी के, किसी को सच्चे गुरु की...

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